Friday, February 15, 2013

15 फरवरी 2013 का चित्र और भाव





नवीन पोखरियाल 
आज मैं ऊपर आसमान नीचे, जब देखा नीचे
याद आया बैग भी छोड़ आया नीचे
जब गर्दन नीचे कि, तब मुझे पता चला
न केवल बैग छोड़ दिया, मैंने बहुत कुछ छोड़ दिया नीचे


नैनी ग्रोवर 
वाह वाह तेरी कुदरत, ये कितने हँसीं नज़ारे हैं,
ये दरिया, ये पहाड़, सब ही तो कितने प्यारे हैं ..

सोच रहा हूँ बैठा-बैठा, क्या इंसान समझ पायेगा,
कर रहा बरबाद इसे, क्यूँ न समझे तेरे इशारे है !!!


Suman Thapliyal 
बोझिल मन , टूटे सपनो का
होते देखा द्वंद परस्पर ,
एक तरफ शीतल जल धारा
एक तरफ पाषाण - प्रस्तर .


Upasna Siag 
अकेला हूँ तो क्या
साथ नहीं कोई तो क्या
ये धरती-आकाश मेरे साथ है
पंख -परवाज़ नहीं तो क्या
एक होसलों की उडान मेरे साथ है


आनंद कुनियाल 
ये खुद को आजमाने की जिद है या
अपने हौसलों को नापने का जोश
जहां से आगे सब रास्ते डगमगाएं
वहां पर आकर भी कायम मेरे होश
क्या हुआ कुछ तो बता ए आसमां
मेरे पैरों तले से क्यूँ जमीं खींच ली


बालकृष्ण डी ध्यानी 
आज फिर

आज फिर बैठा हूँ
आज कल आज के बीच
फिर फंसा हुआ
अपने हक से अड़ा हुआ हूँ

कैसा द्वन्द है
कैसा मै मतिमंद हूँ
भीतर भीतर की जंग है
बस ओझल मन है

इस तन के सहारे
चला परबत,किनारे
थका बैठा फिर मै
बीच मजधार द्वारे

भूल बैठा मै
वो बैठा मेरे ही संग है
जिसने रचा है ये विश्व
सुंदर मन तन है

आज फिर बैठा हूँ
आज कल आज के बीच
फिर फंसा हुआ
अपने हक से अड़ा हुआ हूँ



राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी' 
हम अकेले कहाँ हैं

हम अकेले कहाँ आये है देखो ,
साथ छुपा लाये बहुत से गम हैं,
ये जिंदगी झोंका है तूफान का,
उससे भी छुप के निकले ये क्या कम हैं



प्रजापति शेष 
कितनी कोशिशों के बाद यहाँ तक पहुँच पाया
अथक श्रम के पश्चात कुछ विश्राम ले पाया
लौट कर जाना भी है यहाँ नही होगी बसर
समझ नही पाया अपनों से दूर क्यों में आया


भगवान सिंह जयाड़ा 
ठुकराए हुए प्यार का गम लिए हूँ ,
आज जिंदगी कुछ यूँ मिटने चला हूँ ,
जिंदगी बेस कीमती है ,यह सोचता हूँ ,
आगे पीछे कौन है मेरे यह सोचता हूँ ,
बरना कितना फासला है मौत तक ,
सिर्फ एक छलांग की ही तो देर है ,
गर अभी भी अहसास हो जाय उनको ,
जान से भी जादा चाहा मैंने जिन को ,
मैं उन की हर फितरत को भुला दूंगा ,
फिर से उन को गले अपने लगा दूंगा ,
ठुकराए हुए प्यार का गम लिए हूँ ,
आज जिंदगी कुछ यूँ मिटने चला हूँ ,


अलका गुप्ता 
उस कोलाहल से भागा मन |
नितांत कोने में जमा आसन |
दुनिया से एकांत हुआ ......
सम्बन्धों को तोल रहा .....
परतों को खोल रहा .....
अंतर्मन के धागों का बंधन |
ये विषम भावनाओं का मंथन |
गुम्फन ये झिझोड़ रहा मन |
जग से भागा-भागा .......|
भाग रहा .......ये तन-मन |
कोई मुझे समझा दो ना ....!
एक राह दिखला दो ना .....!!


प्रभा मित्तल 
दूर क्षितिज तक जाना है मुझको
जीवन में सब कुछ पाना है मुझको
यही सोच सपनों की गठरी रख सिर पर
आड़े-तिरछे काँटों सी पगडण्डी पर

राह अकेले चलते-चलते
आज यहाँ तक पहुँच गया हूँ
ऊपर-नीचे,इधर-उधर देख देख
अब असमंजस में सोच रहा हूँ

अपनों का प्यार चुरा लाया
उनके सपने भी ले आया
ना जाने क्या चाह रहा था
दूरी आसमान की नाप रहा था

राह के साथी छूट गए हैं
अरमानों की नगरी सूनी है
ये सृष्टि जितनी सुंदर है
उतना ही सफर भारी है

अपनी मंजिल खोज रहा हूँ
मन ही मन अब सोच रहा हूँ
नहीं क्षितिज की चाह मुझे अब
सब साथ चलें,बस साथ रहें
रहे प्यार औ विश्वास परस्पर
इस सुख का कुछ मोल नहीं है
और यहीं है स्वर्ग धरा पर।


डॉ. सरोज गुप्ता 
यह दीवाना है या तो पगली है
इश्क में चोट खाई घर से भगली है !

चाँद को पा लेने की दीवानगी
इश्क वालो के लिए एक बानगी
फिजा का चिलबुला मिजाज
सरगम का नशीला होता साज
बंधन में बंध गए तोड़ रीति रिवाज
समय ने जल्दी ही करवट ली
चाँद का दिख गया काला दाग
ग्रहण लग गया फिजा की खुशियों को
नहीं बची आज कोई साख
हो गये अरमान सब राख
दुनिया से कैसे मिलाऊँ आँख ?

यह दीवाना है या तो पगली है
इश्क में चोट खाई घर से भगली है !

राधा के गीत गोपियों के मीत
ले गए मथुरा अच्छी नहीं यह रीत
रोई थी बाँसुरी होकर बेसुरी
बेसहारा होकर बेसुध ,बेखबर थी
गीतिका के छंद मंद पड़ गए थे
कांडा के काण्ड रुंड-मुंड कर रहे थे
मैरीकाम के मुक्के हौंसले दे रहे थे
दामिनी के दर्द के हुए नहीं थे फैंसले
माएं अब कैसे बचाए भेड़ियों से घोंसले
नाप रही हैं जिन्दगी और मौत का फासला !

यह दीवाना है या तो पगली है
इश्क में चोट खाई घर से भगली है !



प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
आज
इस ऊंचाई पर बैठ
देख रहा था
प्रकृति के खेल निराले
और उसी पल
जिंदगी और मौत को
गुफ्तगू करते पाया
एक पल में
आँखों में उतर आया
बीता हुआ
अच्छा बुरा हर पल
अपने पराये
मुस्कारते - रुठते लोग

आ लौट चले
उसी धरती पर
इन्ही पलो को
फिर से सजोने के लिए



केदार जोशी एक भारतीय 
हूँ उदास कुछ अपनों ने ही दिए गए जख्म से ,
बीमारी है लाइलाज दवा कहा से लगाऊँ ,
बस इन् विरानो में ही सहारा मिलता है मुझे ,
यहाँ बैठ वादियों से बाते करता हूँ मैं



किरण आर्य 
पहाड़ की छोटी पे बैठा मन सोच रहा
हाँ जिंदगी ऐसे ही तो तेरा साथ निभाया
कभी शीतल जलधारा सा लगा तेरा स्पर्श
कभी यथार्थ का धरातल पाषाण सा कठोर
और जिंदगी उहोंपोह में झूलती संग इसके
कभी दुनिया की भीड़ में भी नितांत अकेला
और कभी अकेलेपन की साथ यादें हाँ मेरी
लेकिन जिंदगी कहाँ कब किसी के लिए रुकी
वो तो बहती जाती है अनावरत जलधारा सी
उअर उसके साथ ही मन मेरा बहता जाता
कभी पाता और कभी सबकुछ होते हुए भी रीता
कभी जीवन का रोमांच हौसले को देता उड़ान
तो कभी मन का सन्नाटा कर जाता है वीरान
चोटी पर बैठा पैरो को लटकाए करता विवेचना
क्या पाया क्या खोया आज बस यहीं सोच रहा


सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

1 comment:

  1. बहुत सुन्दर सभी मित्रों के भाव .......

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शुक्रिया आपकी टिप्पणी के लिए !!!