Sunday, April 14, 2013

10 अप्रैल 2013 का चित्र और भाव




सुनीता शर्मा 
समुद्र शाश्वत सत्य
जिस पर बढ़ते सबके पग
रेत पर अंकित चिन्ह
खो जायेंगे लहरों संग
सदियों से चल रहा
सदियों तक चलता रहेगा
जीवन म्रत्यु का यही क्रम
सिकन्दर हो या गजनी
समुद्र के थे बटोही
दुनिया पर शिकश्त करने वाले
इसी रेत पर गए थे मिल
जीवन में करें ऐसा कर्म
मानवता के पदचिन्ह
धो न सके कभी कोई लहर
समुद्र है स्वर्ग का मार्ग
रेत कर्मो का धरातल
म्रत्यु को प्राप्त होने से पूर्व
छोड़ जाओ पीछे अपने निशाँ
वक़्त की हर आँधी के बवंडर में
उदघोषित होता रहे तुमारा सम्मान !


नूतन डिमरी गैरोला 
जिंदगी की तपन को
अपनाया कुछ इस कदर मैंने
जैसे नंगे पाँव
भरी दोपहर में
रेत के घोरों में
छाले उठ आये थे
पोरों पोरों में|
बदते चले कदम मेरे
कभी मुड़े नहीं
कभी रुके नहीं|
किसी मृगतृष्णा का प्यासा न था
इसलिए सूरज ने तपिश छोड़ दी है
हवाओं ने सहलाया है मुझे
सागर ने भी रुख मोड लिया है
लहरे मेरे स्वागत के लिए
बढ रही है ...
क़दमों में शीतलता की बारिश होगी
रूह बुझा लेगी प्यास ...
यही तो जिंदगी है मेरी
यहीं तो मंजिल है मेरी
मैं अनवरत सागर की ओर


नैनी ग्रोवर 
सागर के उसी तट पर,
हाथों में हाथ थामे,
हम चलते थे नगें पावँ,
दूर तलक,
लहरों को महसूस करते,
हमारे एहसास,
बालों को उड़ाती,
वह ठंडी ठंडी भीगी हवा,
ना जाने कितनी शामों को,
अपने दिल में दबाए,
वो मंज़र यही ठहरे हैं,
और मैं खड़ी हूँ,
बिलकुल अकेली, तनहा,
बस देख रही हूँ,
तेरे क़दमों के निशाँ,
जो जा रहे हैं दूर बहुत दूर,
कभी ना आने के लिए ...!!


सूर्यदीप अंकित त्रिपाठी 
रेत के समंदर में डूबी जिंदगी ....
जो आखरी साँस भी नहीं ले सकती ....
सिर्फ छटपटाहट के ही निशां रह जाते हैं ....
अनदेखे, दबे कुचले, भीतर ही भीतर ..
और रह जाते हैं क़दमों के,
उभरे हुए निशां, जद्दोजहद के,
धकेली गीली मिटटी पर…।
कितना श्रम किया उसने,
सागर की ओर जाने का,
और पास ही खड़ा सागर,
न जाने क्यूँ नहीं कोई सुराख कर पाता,
रेत की छाती पर,
शायद उसे भी अपने सोख लिए जाने का डर है ...
दो कदम बढ़ाता है….
चार कदम पीछे लौट जाता है… बेबस ....



किरण आर्य 
मैं और तुम
हाथ थामे एक दूजे का
चलते अहसासों की
नर्म रेत पर
प्रेम की पद्चाप और
चिन्ह रूह पर हुए अंकित
जाने कब हौले से
मन जो हुआ करता था मेरा
जाने कब फिसल
पहलु से मेरे हो गया तुम्हारा
खोकर अस्तित्व अपना
तुझमे पा लिया जीवन मैंने
हाँ सागर की लहरों से तुम
आते और भिगो जाते तन मन
और रह जाते रूह पर मेरे
तुम्हारे अहसास स्पर्श के



डॉ. सरोज गुप्ता 
निशानियाँ
~~~~~~~
अनुकरणीय हों निशानियाँ !
झूमेंगे सैलानी सुन हमारी कहानियाँ !!

ये नर्म गर्म बालू की तपती हुई रेत,
दुःख रहे हैं छाले अब तू मरहम न लपेट !
वक्त साक्षी है देख प्रेम की अनोखी भेट,
नसीहतों की पुडिया मिलेगी इनके हेत !!

अनुकरणीय हों निशानियाँ !
झूमेंगे सैलानी सुन हमारी कहानियाँ !!

मेरे सनम तुम्हारे ये पैरों के निशाँ ,
देखो बढ़ा रहे हैं इस धरती का मान !
चिन्हित कर रहे तुम्हारा स्वाभिमान ,
घाव छुपाकर कैसे जिए सीना तान !!

अनुकरणीय हों निशानियाँ !
झूमेंगे सैलानी सुन हमारी कहानियाँ !!

सागर की लहरें आ रही करने गलबाईयां,
आगोश में भर करने दूर तेरी तन्हाईयाँ !
घमंड न कर,गिना न मुझे तू मजबूरियां ,
आ!एक हों तो भी रहेंगी हमारी निशानियाँ !

अनुकरणीय हों निशानियाँ !
झूमेंगे सैलानी सुन हमारी कहानियाँ !
हीर -रांझा,शीरी -फरियाद की कहानी ,
चीख-चीख के सुनायेंगे अपनी जुबानी !!

अनुकरणीय हों निशानियाँ !
झूमेंगे सैलानी सुन हमारी कहानियाँ !!


अलका गुप्ता 
बढ़ चले कदम उसी ओर अनायास |
गीले थे रेत से मन के हर आभास |
लेकर आएँगी लहरें खुशियों का साथ ...
जगाती थी मन में बस इक यही आस ||


बालकृष्ण डी ध्यानी 
बस चला था वो

बस चला था वो किनारे किनारे
बस चला था वो
अकेले थे वो पग बस रेत में धसे
बस चला था वो

सागर की लहर लहराये लहराये
तट पर अपने वो कदम बढ़ाये
मन और तन ले संग अपने वो
बस चला था वो

हवाओं का शोर कभी वंहा
कभी तन्हाई का वो शांत सफर
बोझल मन के अंकित पग वो
बस चला था वो

विचारों को कभी आयाम देखा
संकोचित संकेत का भी परिणाम देखा
ओझल,उदय सूर्य किरण के कभी साथ वो
बस चला था वो

नई दिशा की थी क्या रहा वो
या कल्पनाओं की बस करता बात वो
परछाई साथ साथ बस फिरा आज वो
बस चला था वो

बस चला था वो किनारे किनारे
बस चला था वो
अकेले थे वो पग बस रेत में धसे
बस चला था वो


भगवान सिंह जयाड़ा 
साहिल पर यह कदम निशान ,
कभी यहा मेरे कदमों से बने थे ,
हम भी गुजरे थे इन राहों पर ,
यह हम को ऐसाश दिलाते है ,
क्या बक्त था वो कभी जब हम ,
जुजरे थे इन राहों पर अकेले ,
कदमों के निशाँ यही बया करते है ,
कारवां के खातिर बने थे यह निशाँ ,
मगर अकेले इस साहिल पर रह गए ,
साहिल पर यह कदम निशान ,
कभी यहा मेरे कदमों से बने थे ,


Bahukhandi Nautiyal Rameshwari 
शांत हो चुकी हैं लहरें सभी .
यहां वो वक़्त भी आया था कभी ..
हताश प्रेमियों को ..
अपनी तपन से सहलाया था ..
सागर ने कभी ..
समाना चाहा गर्भ में इसके जब…
संग चलने को पदचिन्ह आबाद रहे ..
वापसी के पदचिन्ह हुए गुम


अलका गुप्ता
क्या हुआ पदचिन्ह जो मिटे न अब तक |
इन्तजार है आएगा कोई जरुर अब तक |
ये लो वक्त की लहरें भी थम सी गई हैं...
कोई तो दौड़ाए इन्हें मचल कर तब तक ||



प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
~मैं तुम में ~
देखो मेरे क़दमों के निशां
तुम्हारी ओर चले आ रहे है
सब कुछ पीछे छोड़कर,
अपने अस्तित्व को त्याग
आज तुम से मिलने आए है
मिलन की आस लिए
तुम में विलीन होने को
तुम में समा जाने को
कल ये निशां हो न हो
लेकिन तुम्हारा साथ
सदा के लिए होगा
एक सुखद
प्रेम अनुभूति संग
मैं तुम में
तुम मुझ में ....


अलका गुप्ता 
[प्रतिबिंब जी  द्वारा लिखी  उपर्युक्त पंक्तियों की प्रेरणा के फलस्वरूप मेरी कुछ पंक्तियां ]

माना ! है प्रीत की तुम्हारे कोई इन्तेहा नहीं |
आतुर भी लौटने के निशा कोई कदमों के नहीं |
आत्मा को इन्तजार तुम्हारा भी कम नहीं...
पर यूँ मिटाकर तेरा अस्तित्व...हरगिज नहीं ||

चाहा था टूट कर......मैंने भी तुझे कम नहीं |
माना ! प्यार के बिना जीना इतना आशां नहीं |
गर सच्चा है आत्मा से आत्मा का ये रिश्ता ...
ये मिलन ईश्वर की बंदिशें तोड़कर हरगिज नहीं ||

फक्र है प्रीत पर अपनी वो इतना बुजदिल नहीं |
मुझे अस्तित्व प्यारा है तेरी मौत हरगिज नहीं |
हम करेंगे इंतजार यूँ ही...जनम जन्मान्तर तक |
हम हैं प्यार के पुजारी !कोई बागी हरगिज नहीं ||


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सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

1 comment:

  1. बेहद खूबसूरत भावों, रचनाओं से सजा ये पृष्ठ ... प्रति जी बधाई.... :)

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शुक्रिया आपकी टिप्पणी के लिए !!!