Thursday, May 23, 2013

20 मई 2013 का चित्र और भाव





Rohini Shailendra Negi 
"रिक्त हथेली"
ये स्पर्श बूंदों का,
टिप-टिप कर,
मेरे हाथों पर गिरना,
कभी तीव्र तो,
कभी मद्धम-मद्धम,
मेरी हथेलियों पर,
टपकना |

मुट्ठी मे,
बंद कर लेने को,
अब तो जी चाहता है,
हरदम,
आज नाचने को,
जाने क्यों,
फिर करता है,
ये मेरा मन |

खिड़की पर,
बैठे-बैठे मुझको,
कितना इंतज़ार,
कराती हैं ये,
देख नहीं सकता,
इनको मैं,
तभी शायद,
रुलाती हैं ये |

देखूँ तो सही,
इनमे ऐसा क्या है,
छू कर तो,
महसूस करूँ,
अन्यथा सर्र से,
फिसल जाएंगी,
जल्द ही,
फिर रिक्त हथेली,
सँवारता रहूँ |


भगवान सिंह जयाड़ा 
रिम झिम रिम झिम बरसा सावन ,
ठंडी फुवार यह अति मन भावन ,

मिट गई अब, धरती की तपन ,
उमड़ घुमड़ कर अब आया सावन ,

इसे देख करता है ,मेरा भी मन ,
इन फुहारों से भिगा लूं सारा तन ,

गरमी से अकुलाये धरती के जन ,
भीग कर सकुन पायेगा यह मन ,

धरती में अब छाएगी हरयाली ,
झूम उठेंगी अब सब डाली डाली ,


नैनी ग्रोवर 
ठंडी-ठंडी सावन की बूंदे
लो धरती पे आईं
चरों और महकी सृष्टि
मौसम ने ली अंगड़ाई ..

भीगी-भीगी हर डाली है
भीगा है हर आँगन
जाने कब घर आयेगा
मेरा भी मनभावन
पपीहे की भी प्यास बुझी
ना मेरी बारी आई..

कोयल कूकी, मयूर भी नाचे
कलकल बहने लगीं है नदियाँ
इन्द्रधनुष की ओड़ के चूनर
खिल गई अम्बर की बगिया
घन घन करती शोर मचाती
काली घटा है छाई....!!


जगदीश पांडेय 
प्यास धरा की है बुझा रहा देखो ये बादल
समेट हथेली में बूँदे हो जाउँ मैं भी पागल
यूँ बिलखनाँ आसमाँ का धरा सह न सकी
बोल दी बात दिल की जो वो कह न सकी
कि-
अपनी आँखो से अश्कों को बरसनें न दो
मोती अनमोल हैं ये इन्हें बिखरनें न दो
जब कभी बिखरे तो मुझे याद कर
थाम लुंगी हथेली पे न इंकार कर


डॉ. सरोज गुप्ता ...
एक हथेली मोतियों से भरी
~~~~~~~~~~~~~~~~
ठंडी-ठंडी ये बूंदे ,मेरी हथेली पर कूदे !
मुट्ठी बंद कर लूँ ,तुझे अंग अंग में भर लूँ !!

मचल-मचल गिरे बूंदे,पीहू पी-पी की रट बांधे !
आँखों-आँखों रात पार की,फिर आई बरसाते !!

ठंडी-ठंडी ये बूंदे , मेरी हथेली पर कूदे !
मुट्ठी बंद कर लूँ ,तुझे अंग अंग में भर लूँ !!

छम-छम ये बूंदें ,अटखेली भर कूदें !
प्रकृति का देख राग-रंग उड़े मन परिंदे !!

ठंडी-ठंडी ये बूंदे , मेरी हथेली पर कूदे !
मुट्ठी बंद कर लूँ ,तुझे अंग अंग में भर लूँ !!

नन्ही-नन्ही ये बूंदे, अम्बर का रास्ता फांदे !
तपती धरा कर शीतल दिखाए अपने फायदे !!

ठंडी-ठंडी ये बूंदे ,मेरी हथेली पर कूदे !
मुट्ठी बंद कर लूँ ,तुझे अंग अंग में भर लूँ !!

गीली-गीली ये बूंदे , भीगे- भीगे सारे बंदे !
भीगी धानी चुनरिया,उलझ गए सारे फंदे !!

ठंडी -ठंडी ये बूंदे ,मेरी हथेली पर कूदे !
मुट्ठी बंद कर लूँ ,तुझे अंग -अंग में भर लूँ !!

हँसी-हंसी सी ये बूंदे,मचल-मचल कर बरसें !
कागज की कश्ती बिठाया,आँख-मिचौनी खेले जैसे!!

ठंडी -ठंडी ये बूंदे , मेरी हथेली पर कूदे !
मुट्ठी बंद कर लूँ ,तुझे अंग अंग में भर लूँ !!


अलका गुप्ता 
समेट लूँ बूंदों को इन बारिस की |
उमड़ी अभिलाषा अंतर-शिशु की ||

बचैन आह ! उमस की मर जाय |
बारिश की बूंदों से हर मन हर्षाए ||

काले-काले .....बदरा आये |
झीनी-झीनी .....वर्षा लाए ||

भीज-भीज हर मन अकुलाए |
पीया मिलन को आस जगाए ||

गंध भीगी मिट्टी की सोंधी सी
दिशा -दिशा को .... महकाए ||

पवन पुरवाई मधुर संगीत सुनाए |
धुली-धुली सी हरियाली मुस्काए ||

हर मन हर्षित नृत्य उल्लास भरे हैं |
कागज के भी... देखो ! ..जहाज चले हैं ||

नवांकुर से फूटे ...नदी-ताल भरे हैं |
नव गीतों से धरती के हर प्रान भरे हैं ||


Garima Kanskar 
पहली बारिश की बूंदों
को हथेली में लेकर
खेलने का करता है मन
कुछ बूंदे बड़ी कुछ छोटी
जैसे ही पड़ती है हथेली पर
होती है अजीब सी ख़ुशी
इस ख़ुशी का कैसे
लफ्जों में इजहार करू
मन करता है
इन बूंदों को अपनी
मुट्ठी में भरकर
रख लू अपने पास
पर ये बूंदे
छूकर हथेली को
चुपके से चली जाती है
लाख करो समेटने
की कोशिश
हर कोशिश व्यर्थ
चली जाती है
जैसे ही पड़ती है नजर
खाली मुट्ठी की तरफ
सारी ख़ुशी मुझसे
दूर चली जाती है
गरिमा कान्सकार


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
~बरखा की बूंदे ~
बरखा की ये बूंदे
हथेली पर पड़ते ही
तेरा अहसास दे गई
तन मन मे मेरे
राग प्रेम का छेड़ गई

रिमझिम बरखा मे भीग रहा
तेरे ही ख्याल मे जी रहा
रोम रोम जैसे महक रहा
हर भाव तेरा गुदगुदाता रहा
तन मेरा हर बात सुन रहा

नाच उठा मेरा अंग अंग
मानो तुम तुम संग संग
अहसासों की होने लगी जंग
प्रीत के सिमटने लगे फिर रंग


किरण आर्य
बारिश की फुहार
तप्त हथेली पे पड़ते ही
अहसासों से तेरे गई भीग
हाँ वैसे ही जैसे मन मेरा
भिगो जाता तेरा नेह और क़रार
रूह मेरी थी बेक़रार और
तेरा प्यार फुहार सा जब
रूह के रेगिस्तान को भिगो गया
एक सौंधी सी खुशबू
बस गई रूह में जो
आज भी है मदमाती
मेरे तन मन को और
अहसासों में भी जी लेती हूँ
एक जिंदगी संग तेरे आज भी
और तन मन मेरा भीग
पुलक उठता है प्रेम फुहार मे
सिमट जाती अंक में तेरे
वैसे ही जैसे सिमट गई
बरखा की बूंदे हथेली पे
भिगो गई तन बदन और अंतर्मन
बरखा की फुहार से बसे
प्रिय तुम मन में मेरे आज भी


सुनीता शर्मा
धरती हो रही लहुलुहान निसदिन ,
बढ़ रहा कत्लेआम दिन ब दिन ,
आसमान का ह्रदय फट गया
रो रहा अब उसका भी अंतर्मन !

लाल लाल धरती को धोने बरखा आई ,
बारिश नहीं ये तो वक्त के नयन भर आई ,
इस हिंसात्मक संसार में जीवन मात्र खिलौना भर ,
इस धरा पर कभी टिकने वाली ख़ुशी की घड़ी न आई !

इस धरा पर खाली हाथ आये सब ,
इस संसार से खाली हाथ जायेंगे सब ,
पल पल बरसती बूंदों में ,
पढ़ सको तो पढ़ लो जीवन सार सब !


बालकृष्ण डी ध्यानी 
बूंदा बूंदी

बूंदा बूंदी बरसातों की
एक बूंद पड़ी मेरे हाथों पे

पड़ते पड़ते वो कह गयी
नम सी लगी वो बूंदा बूंदी पानी की

छम छम छम गयी
दिल पर जम गयी बूंदा बूंदी पानी की

हाथों पर लपकी वो ऐसे
छपकी हो झपकी हो जैसे बूंदा बूंदी पानी की

हथेली पर और वो अश्रू की धार
गिरी वो आकाश से कुछ ऐसे आज बूंदा बूंदी पानी की

कोई राह देखे मन बिरहा जैसे
रिम झिम राहों पर कतार बूंदा बूंदी पानी की

बूंदा बूंदी बरसातों की
एक बूंद पड़ी मेरे हाथों पे



सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

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