Friday, May 10, 2013

8 मई 2013 का चित्र और भाव




दीपक अरोड़ा 
इन वीरान रास्तों की तरह
तन्हाई ही अब मेरा साया है
अनमोल जिंदगी गंवाकर
यही कुछ तो मैंने पाया है...


जगदीश पांडेय 
आ गया वही राह फिर
पीछे जो छोड आया मैं
याद नही है अब मुझको
क्या खोया क्या पाया मैं
आ गया वही राह फिर
पीछे जो छोड आया मैं

आसमाँ भी धुमिल हुवा है
रास्तें भी हैं पथरीली सी
याद है इसी राह पर मुझे
आती वो लडकी पगली सी
देखे सपनें इन दरख्तों के संग
जिंन्हें सच न कर पाया मैं
आ गया वही राह फिर
पीछे जो छोड आया मैं

.
वादे किये थे संग चलनें के
साथ सदियों हम रहनें के
नही सोचा था कभी हमनें
उम्मीदों की शाम ढलनें के
बदला मौसम हुवा पराया
लौट के वापस फिर न आया
फिर भी तोड सारे बंधन को
तुझको ही तो था अपनाया मैं
आ गया वही राह फिर
पीछे जो छोड आया मैं


डॉ. सरोज गुप्ता 
झड गए सब पते !
धुंधलके रह गए मेरे मत्थे !!

न जा साथी न जा यूँ राह में अकेला छोड़ ,
काटे न कटेंगे जीवन के घुमावदार मोड़ !
तेरे ही नजरों से देखे मैंने स्वप्ने सुनहरे ,
अकेले न छांट पाऊँगी ये बादल हैं घनेरे !
झड गए सब पते !
धुंधलके रह गए मेरे मत्थे !!

तेरे बिना क्या बहारें देखी मैंने कभी ,
अलख भोर का उगता सूरज बैगाना हुआ अभी !
उजड़े हुए शहर बस जाएँ चाहें अब सभी ,
दिल की ड्योढी का कोरा दिया बलेगा तभी ,
तेरी सूरत का दीदार करूंगी मैं जभी !
झड गए सब पते !
धुंधलके रह गए मेरे मत्थे !!


विजय गौड़ 
मैं इस राह में अपने कदमों के निशाँ ढूंढता हूँ,
किस तरफ चला था मैं, वो दिशा ढूंढता हूँ।
कुछ यादगार पल, कुछ खूबसूरत शामें,
चला था जिसके साथ, वो मेहरुनिशाँ ढूँढता हूँ।।

दूर उस धुंध से इक तस्वीर सी उभरती है,
मैं उसमे अपना कोई हिस्सा ढूंढता हूँ,
सूखे पत्तों की एक परत सी ज़मीं है जिसपे,
मैं इस ज़िन्दगी का वो किस्सा ढूंढता हूँ।


Bahukhandi Nautiyal Rameshwari 
इन सर्द धुंधली राहो में ..
देखो कैसे ये वृक्ष तने से हैं ..
झड चुके हैं पात, शाखों से इनकी ..
उग रहे ख्वाब, कोमल टहनियों में ...
आएगा सावन फिर से .
पड़ेंगी बूँदें, प्यासी धरा पर ..
उड़ेगी मृत्तिका श्वास फिर से ..
लिए मंद मंद खुशबू मटैली ..
फिर नाचेगी, प्रकृति फैला छटा नखरेली ..

मिट रहे शाख, राहों से फिर बंट जायेंगे ..
सब्र करना सीखो मानुष, मुफलिसी के दिन भी ..
बदलते मौसम से कट जायेंगे ..
धुंध से आगे भी जीवन है ..
ना इसको ठहराव कहो ..
समय की अविरल धारा .
सदैव संग बहो ......

किरण आर्य .
शाम का धुंधलका
और रूत है सुहानी
धुंध सी यादों के सायें
कहे प्रेम की कहानी

याद आ गई दिल को
भूली बिसरी सी रवानी
थाम हाथ तेरा चली मैं
डगर थी ये अनजानी

तू नहीं है साथ रह गया
प्यार बन कर निशानी
गम के सागर अश्कों में
ना डुबो दें मुझको जानी

याद हर जो वजूद को कर
जाए छलनी है मिटानी
तू रहा दिलबर मेरा ही
मैं रहूँ बन तेरी ही दीवानी

यादो के धुंधलके घनेरे
अमिट भयावह है मगर
हँसते हँसते ही हमें
प्रीत की रीत है निभानी


Rohini Shailendra Negi 
"पतझड़"

ये रस्ते चले जा रहे हैं,
जाने कहाँ हताश से..?
शायद ये भी मसरूफ़ हैं,
मंज़िलों की तलाश मे |

कोई भी तो नज़र न आए,
कैसा ये अंधड़ है.........?
डरे हुये, सिमटे हुये से,
लोग सभी नदारद हैं, |

इस धुंधलके मे गुम होकर,
पथिक हजारों भटक गए,
कामनाओं और लालसाओं के,
त्रिशंकु मे लटक गए |

पतझड़ जाये तो सावन,
अपना सुंदर मुख दिखलाए,
देख कोंपलें फूटें,
बंजर ज़मीं भी अंकुर ले आए |

काश ये सूखा मंज़र हो तब्दील,
घटाएँ छा जाएँ,
हो ऐसा सौभाग्य सभी का,
मस्त बहारें लौट आयें |


अलका गुप्ता
खो गईं है राहें.. कहीं ..दूर वीरान होकर |
धुंधलका घना छा रहा है...मगरूर होकर |
राहों में खड़े हैं वृक्ष पंक्तिवद्ध वाहें फैलाए ..
दिखता नहीं पथिक कहीं कुहासों में फंसकर ||

यही तो जिन्दगी का हाल है ! हाल है या बेहाल है |
मकसद सारे खो गए हैं ..जिम्मेदारियों के बोझ हैं |
कुछ करेंगे !..या रचेंगे नया...बदल देंगे हर मोड़ को ...
कुछ ना हम कर सके..यूँ ही खोई ..बचपने कीसोंच हैं ||


Garima Kanskar 
आया पतझड़
साख से सारे
पत्तो को उड़ा
ले गया
हर एक पत्ता
डाली से जुदा
हो गया
हवा के शोर
में पत्तो का
दर्द सुनाई
पड़ रहा था
पेड तन्हा खड़े थे
सुनसान रास्तो में
उनके दर्द को बाटने
वाला दूर दूर
तक कोई था
रात का घनघोर अँधेरा
या हो सुबह का कोहरा
सब कुछ पेड़
अकेले सह रहे थे
गरिमा


Virendra Sinha Ajnabi .
वही रास्ते और वही आसमान, पर वो हमसफ़र नहीं,
उजड़ा-उजड़ा, वीराना सा है, हरा भरा वो मंज़र नहीं,
मंजिल पीछे रह गई, सामने तो धुंध है और कुछ नहीं,
क्यों न रोक लूं कदम, जब रहा मकसदे-सफर नहीं. ...

Himanshu Kharabanda 
चुप चाप सिमटती राहो को,इँतजार तुम्हारा रहता है,
दरख्तो की सूखती बाहो को,इँतजार तुम्हारा रहता है।
उदास दिखे जर्रा जर्रा, हर पहर उदासी का पहरा,
टूटे पत्तो की आहो को, इँतजार तुम्हारा रहता है।

Bahukhandi Nautiyal Rameshwari 
सर्द दिन, सन्नाटा गहन पसरा है ।
चल पथिक, पथ कितना संकरा है ।
गहन है धुंध, तू पथिक वखरा है ।
ज़र्र पत्तियाँ , तूने पग धीमे धरा है ।
जाने किसका दामन, राह में बिखरा है ।
भय क्यूँ, ये ऋतु का चौमासी नखरा है ।
बढेगा, पायेगा तभी, जहाँ हलाहल बिखरा है ...


बालकृष्ण डी ध्यानी 
खामोश इन राहों में

खामोश इन राहों में
मन और मै यूँ ही अकेला
दूर इन निगाहों से
कोहरा घटने बड़ने लगा
खामोश इन राहों में

सर्द रातों की बात है
ठिठुरन वाली आगे रात है
दो घड़ी का संधी प्रकाश
कदम बढ़ रहा अब साथ है
खामोश इन राहों में

एक राह सीधी जाती हुयी
पेड़ों की कतारों को घेरती हुयी
स्तभ ये नजारा है दो घड़ी का
बस अब अँधेरा की शुरवात है
खामोश इन राहों में

पतझड़ का वो मौसम है
बिरहा छायी ये मधुबन है
रात को तड़पे मोरा जिया
कैसी दिल मची हलचल है
खामोश इन राहों में

खामोश इन राहों में
मन और मै यूँ ही अकेला
दूर इन निगाहों से
कोहरा घटने बड़ने लगा
खामोश इन राहों में


कुसुम शर्मा 
जब तुम हम से मिले तो ऐसा लगा
मानो जीवन में बाहार आ गई
जैसे कलि खिल कर फूल बन गई
चारो ओर खुशियों की हरियाली थी
आकाश में छाई लाली थी

हम मदहोश थे तेरी आहोश में
न खबर थी दिन और रात की
चारो ओर प्यार ही प्यार का डेरा था

तुम क्या गए कि मानो जिंदगी वीरान हो गई
बहारो कि जगह ली पतझड़ ने
कलि फूल बन कर बिखर गई
चारो और छाया दुखो का कोहरा

कभी सोचते है कि तुम हमारे जीवन में न आते
न ही बाहार आती न ही पतझड़ लाती
फिर भी पतझड़ में सावन का दीदार करते है
हर घड़ी सिर्फ तेरा इंतज़ार करते है


भगवान सिंह जयाड़ा 
वो शर्दियों वाली ठिठुरती सुबह ,
वही एकांत जंगलों वाली जगह ,
बादियों में घिरा वह घुप कोहरा ,
नहीं दिखता जब किसी का चेहरा ,
वह सूरज की अठखेलियों संग ,
कभी सप्तरंगी इन्द्र धनुष के रंग ,
बचपन के वह हशीन लह्में के संग ,
इन्हीं राहों पर जब चलते थे संग ,
वो हशीन यादें कुदेरती है मुझे ,
जब इन्हीं राहों पर ढूडते थे तुझे ,
वो शर्दियों वाली ठिठुरती सुबह ,
वही एकांत जंगलों वाली जगह ,


नैनी ग्रोवर 
ये वीरान रास्तों के धुंधले-धुंधले साए,
हम भी चुपचाप से, इनमें जा समाए..

गुमसुम सी इन वादियों में, कोई नहीं,
पत्थर हुई हैं निगाहें, देखो तो , रोई नहीं,
तस्वीर कोई ख़ुशी की, मैंने भी संजोई नहीं,
बीते हुए चमकीले लम्हे, ना कोई याद दिलाए..

हम भी चुपचाप से, इनमें जा समाए..

सर्द हो गए हैं क्यूँकर, ये सारे ही जज़्बात,
ख़तम हो गए सारे किस्से, छूट गए जो हाथ,
फर्क अब पड़ता नहीं, हो गर्मी, सर्दी, या बरसात,
मौसमों के सुहानेपन, अब दिल ने दिए भुलाए ..

हम भी चुपचाप से, इनमें जा समाए...!!



प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
~आज में जीना सही~

देख दृश्य मन कुछ उदास हुआ
कल पर पडी काली छाया देखी
मन को अनेको सवाल करते पाया
लेकिन इसी तस्वीर से जबाब पाया

सावन देखा, पतझड़ देखा
फूल पत्तों को फिर जीते देखा
गिरते कटते वृक्षों को देखा
प्रकृति की मार सहते देखा

हरे भरे संसार में भी कभी
पतझड़ का मौसम आता है
रोशन हुई दुनिया में भी कभी
अन्धकार बरबस छा जाता है

जो आज है वो कल शायद न हो
जो कल था, शायद वो आज नही
जीना तो हमें आज है 'प्रतिबिम्ब'
फिर जो मिले उसमें जीना ही सही




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