Saturday, October 26, 2013

17 अक्टूबर का चित्र और भाव




बालकृष्ण डी ध्यानी 
इंद्रधनुष और पहाड़

आसमान में छटा बिखेरते
इंद्रधनुष पहाड़ों से क्या कहते

रंगों की ये बारिश है अब
हरियाली जब तक सबित है अब

नीले रंग को ओढा दिया है
थोड़े समय जो पहले भीग गया है

चमक उठा वो सूरज की रोशनी में
अनंत भी लुप्त है अब उस मस्ती में

बैठ अब मस्तक पे तेरे
सात सुरों से मै लहलहा हूँ जैसे

चित्र उभरकर ऐसा आया
हर एक उसे अब देखने आया

आसमान में छटा बिखेरते
इंद्रधनुष पहाड़ों से क्या कहते


नैनी ग्रोवर 
वो दूर पहाड़ों के पीछे से झांकता
सतरंगी इन्द्रधनुष,
सृष्टि को अति सुन्दर बनाता,
सतरंगी इन्द्र्धस्नुष,

याद आती है इसे देख कर,
किसी अल्हड सी यौवना की चुनरी,
महका जाती है ख्यालों को,
जैसे दूर बजती,कान्हा की बांसुरी,
संग संग गुनगुनाता मुस्कुराता,
सतरंगी इन्द्रधनुष..

देख कर इसे जाग जाती है,
मन में नयी आशा,
समझ में आने लगी इसे देख कर,
प्रेम की नयी भाषा,
आँखों में ठहर कर निहारता,
सतरंगी इन्द्रधनुष....... !!

कवि बलदाऊ 
गोस्वामी वह इन्द्रधनुष,
अंधकार और धुंधलेपन के अंत में
खिलता
सदा दृश्य को होता,
सतरंगी______
खिल उठा है पहाड़ के ऊपर।
धरती और आकाश के बीच
पुल-सा
धनुषाकार,योध्दा कि तरह___
जीवन की रंगीन संदेश समेटे
दूर और अपरिचित किन्तु,
करीब वह इन्द्रधनुष
खिल उठा है पहाड़ के उपर।

परत-दर-परत अपने गर्त में
छुपाया है रहस्य_____
जीवन में बदले रंगों का,चेत और
अचेत का,
व्यक्त और अव्यक्त कल्पनाओं-सी
चलो,
लिखें अब एक कविता
इन्द्रधनुष पर
और इसके गहन रहस्यों को
जरा-जरा सा समझें।


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
~ मन का इंद्रधनुष ~
रवि रशिम ने रंगों को नभ पर उकेरा है
रंगों का घूँघट प्रकृति ने यूं ओढ़ लिया है
रत्नजडित आभूषण सा आसमा पर छाया है
सतरंगी इंद्रधनुष नील गगन में उभर आया है

इंद्रधनुष की झंकार प्रियतम को बुला रही
बरखा बूदो संग प्रेम दिल में उतर आया है
आकर्षण दुल्हन सा नयनो में समा लिया है
रंग प्रेम का देखो तन - मन में उतर आया है


कुसुम शर्मा
बरखा आई बरखा आई
साथ अपने इंद्रधनुष भी लाई
आसमान में रंगों का ये कैसा प्रतिबिंब
बाहरी हिस्से में लाल, भीतरी हिस्से में बैंगनी रंग
कभी-कभी इंद्रधनुष के पीछे आते दूसरे रंग
लाल-बैगनी के अलावा नारंगी, पीला, हरा, नीला और इंडिगो।

इन रंगों में राज छुपा है सात अंक का महत्व छुपा है
एक सप्ताह के भी होते सात दिन
सूर्य के रथ के सात है घोड़े
सात दिनों में संसार की रचना जिसकी होती सात परिक्रमा
सात गुण है, सात पाप है,सात उपकार है, सात तंत्र-मंत्र है और सात ही ताल
जीवन की भी सात क्रियाएँ , स्नान के भी सात प्रकार, सात लोक है , सात पदार्थों ,
माता, पिता, गुरु, ईश्वर, सूर्य, अग्नि व अतिथि इन सातो का अभिवादन
जीवो के शरीर में सात धातुओ का है संग
अयोध्या, मथुरा,हरिद्वार, काशी, कांचीपुरम, अवन्तिका ,द्वारिका
सात पवित्रतम पुरियों की संज्ञा
आकाश में सप्तर्षि मण्डल नज़र जो आते
वे सप्तर्षि ब्रह्मा के मानस पुत्र कहलाते
सात जन्म है, सात वचन है,सात ही फेरे
सात स्वर है, सात लोक है, सात ही नदियाँ
सात महाद्वीप है, सात नृत्य है
इंद्रधनुष में भी देखे हमने सात रंग !!



भगवान सिंह जयाड़ा 
बादलों के झुरमुटों से झांकती ,
बारिष की बूंदों से नहलाई सी ,
सूरज की वह स्वर्णिम आभा
चंद किरणों का वह झुरमुट सा ,
धरती की सुन्दर हरियाली पर ,
बिखेरती अपनी निर्मल आभा ,
दूर छितिज में वह इन्द्रधनुष ,
दिखे आँखों को कितना प्यारा ,
प्रकृति ने किया हो जैसे सृंगार ,
सप्त रंगों के संग ओढ़े हुए बहार ,
मन की कल्पना को करे साकार ,
देख कुदरत का यूँ अनोखा आकार,


अलका गुप्ता 
नील गगन हे ! सावधान |
साध ये ..सतरंगी कमान |
आया है... कौन काज ...
अनंग ले ...ये काम वान ||

शाख शजर के डेरा डाल |
मन करे..घायल बेहाल |
हरी हरियाली पाँखों बीच ..
ओढ़े बैठा सतरंगी शाल ||

मौसम ये भीगा-भीगा आया |
काले-काले...बदरा लाया |
वावली हुईं यादें सांवरिया की ..
मन व्याकुल मिलन को भरमाया ||

नई नवेली वधु सी मैं शरमाऊं |
सोंच-सोंच कर..मैं घबराऊं |
कारन जिसके अब तक जली मैं
इस सावन यूँ ही ना मर जाऊं ||


जगदीश पांडेय 
देखो चल दिया ये जहाँ तेरी खातिर छोड
मेरे आखिरी वक्त में ना ऐसे तू मुँह मोड
दीप जला तेरी यादों के गुजारा दिन मैनें
लाया चूडियाँ सतरंगी ख्वाबों को मैं जोड

भूल गई वादियाँ हरी भरी बरखा की बूँदे
किया था वादा लाउंगी इंद्रधनुष मैं तोड
नहीं कोई तेरे सिवा दिया क्यूँ दिल तोड
तेरे चाहनें वालों में मची है अब तो होड

न चुरा तू आँखें अब शरमाना मुझसे छोड
मेरे आखिरी वक्त में ना ऐसे तू मुँह मोड
मेरे आखिरी वक्त में ना ऐसे तू मुँह मोड
मेरे आखिरी वक्त में ना ऐसे तू मुँह मोड


सुनीता शर्मा 
जीवन धरती पर सपने दिखते इन्द्रधनुषी ,
पग पग झमेलो में सपने होते आरुषि ,
बरखा की बूँदो सी सींचती सपनो की धरती ,
सोंधी सोंधी माटी सी खीचती सपनो की विदूषी !

हरियाली धरती की लाती खुशियाँ जीवन भर की ,
सात रंगों में सिमटी गाथा पूरे मानवता की ,
सुख दुख में संचित प्रकृति के इन्द्रधनुषी रंग ,
जीने का ढंग सीखाती भरती जीवन में अनोखे रंग !

जीवन प्रेरणा से भरपूर है समझो पूरी सृष्टि ,
उसको समझने हेतू अपनाओ कोमल दृष्टि ,
संगी साथी के बिना भी पेड़ों से सँवरे धरती ,
स्वच्छ वातावरण बनाओ बचाओ अपनी हस्ती !


सुनीता पुष्पराज पान्डेय
इंद्रधनुष........
जब तुम निकलते हो बादलो की ओट से
तुम्हे देख खिल जाता है मेरा मन
छिटके है मेरे जीवन मे ये तुम्हारे रंग
लाल रंग से बनी मै अपने पिया की सुहागन
पीला रंग ले आता है मेरे घर मे बंसत
नीले आसमा को निहारा करती हुँ पहरो
हरी बगीया को देख भूल जाती हुँ खुद को

सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

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