Friday, October 11, 2013

25 सितम्बर 2013 का चित्र और भाव


जगदीश पांडेय 
नई उमंग हो नई तरंग हो
तन में हो सदा उर्जा के रंग
मन में एक विश्वास जगेगा
रहेगा जो सदा योग के संग

ध्यान मग्न हो रचना करें
मिल कर नई सृष्टि का हम
जिसे देख कर रह जाये
सृष्टि का रचइता भी दंग
नई उमंग हो नई तरंग हो
तन में हो सदा उर्जा के रंग

.
कहाँ शहर में है अब वो सुख
जो मिलता है अपनें गाँव में
सुबह शाम करते थे ध्यान
नीम की घनेरी छाँव में
पहिया वक्त का चला ऐसा
लड रहा इंसान खुद के संग
बिना ध्यान मन के तार टूटे
और सपनें सारे हो गये भंग
.
नई उमंग हो नई तरंग हो
तन में हो सदा उर्जा के रंग
मन में एक विश्वास जगेगा
रहेगा जो सदा योग के संग


बालकृष्ण डी ध्यानी 
हम सब हैं
मै हूँ
तो तुम हो
साथ फिर हम सब हैं

देखा देना होगा
हम को मिलके
एक दूजे का साथ
मै हूँ

हवा पानी
खिलता ये प्रकाश
चारों मौसम हम आगाज
मै हूँ

निर्भर हम है
एक भी अगर कम है
बिगड़ जायेगी बात
मै हूँ

देखो हम सबको
संतुलन रखना पड़ेगा ध्यान
सृष्टी में तब रहेंगे प्राण
मै हूँ

कहना है मेरी जान
जीवन में पेड़ों को
देना पड़ेगा सन्मान
मै हूँ

एक पेड़ लगाओ
खुद को भी बचाओ
धरा को सजाओ
मै हूँ

मै हूँ
तो तुम हो
साथ फिर हम सब हैं


अलका गुप्ता 
अमोघ अस्त्र सा बाहुपाश में हो |
दृढ़ता एक आत्म संकल्प में हो |
हो प्रयास पर्यावरण संतुलन का...
उत्साह असीम आगाज तन में हो ||

वर प्रकृति संग...वधु हरियाली हो |
मधुर मुग्ध प्रगाढ़.....आलिंगन हो|
सृष्टि सदा सुखमय अविराम अतिशय
अंक लता वट वृक्ष अक्षय अगाध हों ||

मन मानवता से मानव ओतप्रोत हों |
उज्जवल अगाध निधि...प्रेम वेश हो |
सुमधुर गंध सोंधी... माटी की अमोघ
ग्रामवास की सरल गलबाँही परिवेश हो ||

उकता रहा मन विकल बहुत आज है |
सीमेंट के पसरे अकूत ये जंगल राज हैं|
चाहता मन भागना विषम इस आगोश से
ढूंडता कोयल पपिहरे की मधुर आवाज है ||


भगवान सिंह जयाड़ा 
उगते सूरज की निर्मल काया ,
यह कुदरत की अनोखी माया ,

किरणों में समेटे अनोखा तेज ,
लगे जैसे यह ऊर्जा की हो सेज ,

आवो कुछ पल कुदरत से जुड़ें ,
आपा धापापी से कुछ पल मुड़ें,

आवो कर लें सुबह कुछ योगा ,
तन मन इस से निर्मल होगा ,

ऊर्जा का होगा तब नया संचार,
मिटेंगें तन मन के सब बिकार ,

मन को अनोखी शान्ति मिलेगी,
शरीर,आत्मा सदा निर्मल रहेगी,

उगते सूरज की निर्मल काया ,
यह कुदरत की अनोखी माया ,


Pushpa Tripathi 
----- आओ साध ले -----

चलो साध ले
अपने हरित को
तन मन समर्पण सरस साथ है
सुन्दर भू पर
लाल सुनहरी
मिटटी कण कण प्रकृति साथ है
चलो साध ले
पग पग जीवन
वृक्ष हमारे जीवन दाता .........l l १ l l

भूमि अपनी,
मात सी छाया
नीला अंबर
छत्र है साया
हरिताभ रंगों को
आओ .... लुटाए
अपने आँगन ... निगम उजाले
आओ साध ले
अपने परिवेश में
धरती .... धरा ... वसुंधरा हमारी ...... l l २ l l


किरण आर्य 
साधक का मन
अमरबेल सा
हरीतिमा लिए
उजास की और
अग्रसर निरंतर
मन के गहन
अन्धकार में
आस के दीप
जलाता उस
ईष्ट को ढूंढता
अंतर्मन में
जिसे ढूंढें है
जहाँ सारा
अनंत विस्तार में
और वो बैठ
मुस्कुराये है
अंतस में
इस भाव को
समझे केवल
साधक का मन
कस्तूरी की
महक से विचलित
पागल मन भटके
इत उत पर
जीवन भर
साधक मन है जाने
प्रभु बसे ह्रदय में ही
मिथ्या सी है भटकन
प्रभु तो बसे अंतर्मन


सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

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