Tuesday, August 25, 2015

१८ अगस्त २०१५ का चित्र और भाव



राकेश देवलाल 
~मकान~

कौन कहता है कि, हम सिर्फ मकान हैं,
बस इसमे रहने वालों के अरमान हैं,
माना कि हमें बनाया था किसी ने बड़े फुर्सत से,
खुद के और अपनी नयी पीढ़ी के लिए,
पर आज अकेले और बस बीरान से हैं,
कल की यादों में खोकर परेशां से हैं,
काश होता अगर जगह बदलना हमारे भी हाथों में,
तो समय गुजरने पर, खण्डर न हमारा नाम होता ||


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल .....
~ पसंद आया है ~

बंद हुए दरवाजे खिड़कियाँ
खाली पड़े पुराने मकानों के
सामान बेच दिया घर का
अब नई जगह और
नया मकान पसंद आया है

एहसास अब बेजान हुए
दिल का दरवाज़ा बंद हुआ
लिखा नाम मिटने लगा है
अब नए लोग और
नया दिल पसंद आया है

पुराने संस्कार और व्यवहार
मन के प्रांगण से दूर हुए
अपने धर्म पर उठा अंगुली
अब नई सभ्यता और
नया रिश्ता पसंद आया है


दीपक अरोड़ा
# नया रिश्ता निभाना है #

बन गया मकान
अब इसे घर बनाना है
प्रेमभाव से रहते हुए
सपनों सा सजाना है
मिसाल बन जाएं औरों के लिए
कुछ ऐसा कर दिखाना है
अपने अपनों के साथ हमें
अब इक नया रिश्ता निभाना है


Pushpa Tripathi
~एक ही घर के कई दरवाजे~
--------------------------

गूंजती यादों ने आज
उस तरफ का रुख किया है
जहाँ आती थी खुशियाँ
बनते थे घर ....
घर का वह शुभ दरवाजा
जिस चौखट से करती थी नववधू प्रवेश !

अब वहां वह बात नहीं
चौखट के दरवाजे को कोई नहीं
नाघता परिवार एक भी सदस्य
रहता है बस वहाँ ....
बीते दिनों की कहानियों का पसरा सन्नाटा
उस कच्चे अधगिरे प्लास्टर में ....
अब कई दरवाजे बने है पत्थरो के
अपने अपने निजी कमरो से
कोई नहीं झाँकता उन कमरों में
क्योंकि अब तो वह बंद है … एक दूसरे के लिए
दिलों में रिश्तों की खटास से
एक ही घर के कई दरवाजे !!



नैनी ग्रोवर --
----दरवाज़े----

बन्द हुए दरवाज़े
घर वीरान हो गया
हर मानव की तरह
ये भी मेहमान हो गया
धीरे धीरे गिरने लगी हैं
मजबूत दीवारें
छत टिकेगी कब तक और किस सहारे
ढह जाएगा इक दिन उन सपनों की तरह
जो जा चुके इसे छोड़ कर अपनों की तरह
नज़र आती है आज भी माँ दरवाज़े पे खड़ी
कभी बाबूजी कभी मेरी राह तकती चिंता में पड़ी
अब कुछ नहीं है यहाँ
सभी कुछ सिमट गया
माँ की बनाई रंगोली का नामों निशाँ भी मिट गया
पर मन करता है इसमें फिर से बस जाउँ
परंतु पड़ी लिखी है संतान मेरी उन्हें कैसे समझाऊँ ..!!



प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल ......
~ तैयार ~

छोड़ दिया अपनत्व के हर भाव को
उस प्यार और अपने पैतृक गाँव को
कोई तैयार नही अब, यहाँ आने को
बचे हुए अब, तैयार हैं बाहर जाने को

खाली कमरे, सूनी दीवारे तैयार रोने को
अपना दर्द समेटे और तैयार दर्द पाने को
खिड़कियाँ दरवाजे अब तैयार टूट जाने को
तैयार हूँ अपनों से ही अब बिछड़ जाने को

जन्मभूमि तुम्हारी अब तैयार खंडहर बनने को
अपने लोगो के हाथो अब तैयार बलि चढ़ने को
ठहाको संग किलकारियां तैयार खामोश होने को
हर रिश्ता तैयार 'प्रतिबिंब' मिट्टी में मिल जाने को


Kiran Srivastava 
"रुग्ण मानसिकता"
----------------
-जर्जर मकान की तरह
मानसिकता लिए
परम्पराओं को धराशायी कर
हम कहाँ जा रहें हैं.....

आपसी रिश्तों के दरवाजे
मानवता की खिड़कियां
सदा के लिए बंद कर
हम कहाँ जा रहें हैं.....

कमजोर होती नींव संस्कार की
ढहती दिवारें विश्वास की
नवीनीकरण की आपाधापी मेंबहकर
हम कहाँ जा रहें हैं.....

क्यूँ भूलती जा रही
संस्कृति
क्यूँ जर्जर हो रही
मानसिकता
क्यूँ न पूनर्जिवित कर लें पुनः
टूटते ढहते विश्वास को
बेजोड़ मजबूती सें
सिंचित कर
फिर खड़ी कर दें
प्रेम और विश्वास
से बनी इमारत को.....!!!!!


अलका गुप्ता
~~~~ईंट-ईंट कराहती~~~~
~~~~~~~~~~~~~~~~~

भग्नावशेष से हुए अब मकान हैं |
खस रहीं दीवारें ज्यूँ अब मशान हैं ||

अहले चमन हुआ करते थे कभी जो..
नशेमन वो हैरान... अब वीरान हैं ||

ईंट-ईंट कराहती लहू लुहान सी ..
बोझिल पर्वतों से ढह रहे आन हैं ||

झाँकते झिरझिरे दर-ओ-दीवार से
सने शील गंधमय अश्रु वियावान हैं ||

धँस चुके हौसले नीड़ के सहमकर
छोड़ जाने गए कहाँ बाग्वान हैं ||

गैरत ख़ुदी की करे है प्रश्न'अलका'
लटकते तालों बची भी क्या शान है ||


भगवान सिंह जयाड़ा 
----पलायन का दंश---
-----------------------------
झेल रहा हूँ दंश पलायन का,
न जाने कब बिखर जाऊंगा,
चले गए मेरे ,मुझे छोड़ कर,
बोले अब न मुड़ के आऊंगा,

गूंजती बच्चों की किलकारियां,
वह चहल पहल मेरे अपनों की,
बस निरास मन से ताक रहा हूँ,
वो दुनियां जो हो गई सपनों की,

मैं इंतजार करता रहूंगा तुम्हारा,
जब तक मेरा अस्तित्व बचा है,
मर्यादा हूँ मैं तुहारे खानदान की,
मुझे तुम्हारे पूर्बजों ने ही रचा है,

यूँ न बिमुख होइए मुझ से अब,
बहुत हो गया,अब मुड़ भी आइए,
वह पुरानी रौनक लौटा दो मुझ को,
फिर कभी यूँ छोड़ कर न जाइये,


बालकृष्ण डी ध्यानी 
~भूली बिसरी यादें~

भूली बिसरी यादें हैं बची
क्या रह गयी थी मुझ में ही कहीं कमी
चले गये हैं सब एक एक छोड़ मुझे
जाते दिखा नहीं क्या तुम्हे मै भी हूँ दुखी
भूली बिसरी यादें हैं बची

पत्थर पत्थर मेरे पुरखों ने जोड़ा
अपने प्रेम का स्नेह का नाता मेर साथ जोड़ा
देख उनकी आत्म ये सब कुछ मेर संग है दुखी
तू कैसे रह सकता दूर हम से हो सुखी
भूली बिसरी यादें हैं बची

इस आँगन में पीढ़ी दर पीढ़ी हमारी बढ़ी
मेरी चार दीवारों ने वो अपनी हर बात सुनी
सुख दुःख था जो हम सब ने मिलके यंहा झेला
तू डर के कहाँ उठा ले चला अपना झोला
भूली बिसरी यादें हैं बची

भूली बिसरी यादें हैं बची
क्या रह गयी थी मुझ में ही कहीं कमी
चले गये हैं सब एक एक छोड़ मुझे
जाते दिखा नहीं क्या तुम्हे मै भी हूँ दुखी
भूली बिसरी यादें हैं बची



प्रजापति शेष 
~विभ्रम~

यह भ्रम मात्र था उन लोगों का जिसने मुझे बनाया था,
क्या भ्रम उनको भी था जिनने भव्य मुझे बनवाया था |

क्यों त्याग चले , क्या उनका मन मुझसे भर आया था,
कहीं वे छले गए,नियति से, क्या किसी ने हडकाया था|

जान मुझे केवल ईंटो का आधार, क्या कुछ पाया था,
नहीं नहीं ये भ्रम तो मेरे मन में ही तब से समाया था|

अपना मान मेनें उनको हर मोसम में बचाया था,
जबकि शेष खंडहरों ने मुझे तब भी चेताया था|


कुसुम शर्मा 
~बदलते समय की मार ~
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जाने कितने सालों से ,
बन्द पड़े दरवाज़े मेरे !
सपने जो तुने सजाये ,
चूर चूर हो गये वो सारे !!

तूने पाई जोड़ जोड़ कर ,
बड़े जतन कर ,
मुझे बनवाया
तेरी ही सन्तानो ने
एक ही पल मे मुझे ठुकराया !!

कभी जहाँ पर किलकारियाँ
गुंजा करती थी ,
चारों ओर ख़ुशियों की
बरखा होती थी .

बिरानियाँ है चारों ओर
नही बचा अब कोई शोर !

छोड़ चुके संस्कारों को
भूल चुके पुराने विचारों को !

पुर्खो की भूमि बंजर पड़ी है ,
शहर मे देखो हलचल मची है ,

रह देखते देखते मै भी बुढ़या गया ,
न ही खुला कभी मेरा दरवाज़ा
न ही आई किसी को याद

मै भी कब तक जी पाउँगा
ऐसी ख़ामोशी को कब सह पाउँगा
नींव साथ छोड़ चुकी मेरा
अब इस खंडहर का बोंझ कैसे उठाऊँगा !!

कभी जो घर हुआ करता था
आज बिरान पड़ा है
बदलते समय की मार के
घावों से भरा पड़ा है !!

सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

1 comment:

  1. वाह्ह्ह्हह्ह्ह्हह अति सुन्दर सभी भाव अभिव्यक्तियाँ .......:)

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शुक्रिया आपकी टिप्पणी के लिए !!!