Friday, November 20, 2015

१२ नवम्बर २०१५ का चित्र और भाव

इस बार चित्र पर आप को दो भाव लिखने है शीर्षक बेसक एक हो - एक सकारत्मक और एक नकारात्मक 
- कम से कम ६ पंक्तियाँ अवश्य होनी चाहिए हर भाव में

Kiran Srivastava 
"दांव"
(1)

ये जीवन भी
दांव खेलती है,
कभी हम खुद से
हार जाते हैं....
कभी जिंदगी
जीतने नहीं देती
लेकिन अपनों से हार
कभी-कभी
जीत से भी ज्यादा
खुशी दे जाती है
और हम हार कर भी
जीत जातें हैं....!!!

(2)

जोश में होश
ना खो जाये
न लगाओ
दांव पे दांव...
निकल ना जाये
चादर से पांव
ऐसा न हो
ज्यादा की चाह में
जीवन बद् से
बद्तर हो जाये...!!!


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल ..... 
1.
~ये तो है ~.

जिन्दगी मुस्कराई
जब तुम आई
पल पल में खुशबू
अंग अंग में छाई

प्रेम आकर्षण
तन मन की खुशी
डेरा डाले बैठी रही
रोज सहलाती रही

जीवन समर्पण सा ख्याल
उत्तर देता हुआ हर सवाल
चाहत - संग 'प्रतिबिंब' सा
मिलन - ख्वाबो का हकीकत सा

2.
~वक्त हँसने लगा ~

लम्बी लम्बी बाते
लेकिन छोटी चाहत सी
पल केवल मिलन के
ख्वाइश उन्हें समेटने की

अचानक पल छूटने लगे
चाहत शब्द बन दूर जाने लगी
साथ केवल शब्दों का
भाव अब दूरी बयां करने लगे

पल वक्त की दुहाई देने लगे
एहसास मेरे सवाल बनने लगे
समय कही और बीतने लगा
वक्त मुझ पर फिर हंसने लगा



नैनी ग्रोवर
1.
 --दाँव--
कभी धुप कभी छाँव है,
यही तो जीवन का दाँव है,

कभी हार में भी जीत है,
कभी जीत में भी हार है,
फूलों का बिछोना कभी मिले,
कभी धुप में जलते पाँव हैं,
यही तो जीवन का दाँव है...

मुस्कुरा के स्वीकार करो हर क्षण,
करेगा परमात्मा स्वयं रक्षण,
विश्वास का दामन ना छूटे कभी,
अगले मोड़ पे ही तेरा गाँव है,
यही तो जीवन का दाँव है ..!!

2.

 ---दाँव---
मौज और मस्ती है हर घड़ी,
कल क्या होगा, किसको पड़ी,
ना घर और ना परिवार कुछ है,
बस दो दिन की बहार सबकुछ है,
महफ़िलों में लगाओ, पैसों की झड़ी,
कल क्या होगा, किसको पड़ी...

डुबो दो आज ही, जो कुछ है कमाया,
कल का क्या पता, आया ना आया,
ऐंठ के लगाओ तुम दाँव पे दाँव,
क्या हुआ अगर भूखा मरता है कोई गाँव,
तुम जलाओ, हसीन सपनों की फुलझड़ी,
कल क्या होगा, किसको पड़ी..!!

बालकृष्ण डी ध्यानी
की हो जाये बंटाधार

पास फेल की ये जिंदगी है
ले तू सब नकद या उधार
की हो जाये बंटाधार .... २

यंहा किसी का कोई नहीं
ना कोई रंक ना कोई साहूकार
की हो जाये बंटाधार .... २

पढाई भी इस पर निर्भर है
चाहे उल्लू हो या होशियार
की हो जाये बंटाधार .... २

सुख दुःख की बंधी लड़ी
दुःख छड़ी जिसको ये पड़ी है
की हो जाये बंटाधार .... २

सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

Tuesday, November 10, 2015

४ नवम्बर २०१५ का चित्र और भाव




नैनी ग्रोवर 
--इंतज़ार--

अंधेरों में बैठे, इंतज़ार कर रहे हैं हम रौशनी का,
कब निकलेगा सुनहरा चाँद, कब देखेंगे मुँह चांदनी का..

ग़ुम हो गए सारे नज़ारे, गुमसुम हुई बहारें,
खो गए जाने कहाँ, अम्बर से तारे प्यारे प्यारे,
लगता है जैसे टूट गया सुर, कोई रागिनी का..

खिलवाड़ किया कुदरत से हमने, अंजाम यही होगा,
डूब जायेगी अँधेरे में दुनियाँ, सच मान यही होगा,
कुछ तो कर लो मान, इस धरती जग जननी का..!!


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
~भीड़~

आज एक भीड़ में खड़े है सब
देख रहे, माहौल बदलेगा कब
कोई रोशनी के लिए जले जब
चेहरा शायद सबका दिखे तब

वैसे भीड़ किसी की होती नही
आज तेरी कल मेरी सोच यही
मानवता सम्मान खोये है कही
अपना कृत्य, केवल लगता सही

भीतर की ज्वाला अभी शांत है
हर कोई, यहाँ असमंजस में है
दूजे को देख 'प्रतिबिंब' सोचते है
मुझे छोड़, यहाँ सब मजे में है


Kiran Srivastava 
" अंधकार "

किंकर्तव्य विमूढ क्यूँ बैठे हैं
ये अंधकार तो है क्षणिक
असली अंधियारी है अंदर
जिससे नही लगे जग सुंदर
मिटा सको तो इसे मिटाओ
एक ज्ञान का दीप जलाओ....

भ्रष्टाचार फैला चहुँओर
त्राहि -त्राहि मची है जोर
क्या महिला क्या बच्चियाँ
उड. रही हैं धज्जियां
खुद समझो सबको समझाओ
एक ज्ञान का दीप जलाओ....

अंदर बाहर सब काला है
नियत में गडबड झाला है
चेहरे पर चेहरा हैँ लगाये
जिसकोकोई समझ न पाये
मिलकर इनकोसबक सिखाओ
एक ज्ञान का दीप जलाओ....!


बाल कृष्ण ध्यानी 
~अँधेरे में ~

अँधेरे में अंधेरों से
अँधेरे चेहरे जब मिले
अंधेर बस अँधेरे ये

बंद तस्वीर
बंद लकीरों से मिले
तब बंद कमरों का खेल चले

मूक हैं अपने से
मूक वो सपने से
ना जाने मन क्या पले

कैसा सन्नाट है
कैसा पल उभर आया है
विचलित ही सब को पाया है

अँधेरे ये .....................



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Sunday, November 1, 2015

२५ अक्तूबर २०१५ का चित्र और भाव





प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
~एक रिश्ता ~

सजाया था एहसासों से
बनाया था जिसे हमने अपने शब्द भावो से
एक रिश्ता अपना सा
आज वक्त के साथ बेगाना सा लगने लगा

दरवाज़ा बंद कर लिया अब
दिल का वो कमरा खंडहर नज़र आता है
एक हिस्सा बाकी है अभी
जो टूट कर मिट्टी में मिलना चाहता है

मुड़ कर देखा था उसने
तसल्ली आँखों से करना चाहते है वो
कुछ छूटा तो नहीं 'प्रतिबिंब'
लौटने का हर निशां मिटाना चाहते है वो

Kiran Srivastava 
" यादें"
-----------------
मिटते धरोहर
दरकती दिवारे
लगे मुझको ऐसे
हमें वो पुकारे
सिसकते हैं आंगन
और रोते चौबारे
आहत होती हूँ
जब मुड कर दखतीं हूँ.....

याद आती है
बचपन की शरारते
बाबा का प्यार
मां का दुलार
बच्चों की टोली
वो मीठी वाली गोली
सपनों में खो जातीं हूँ
जब मुडकर देखतीं हूँ.....

ऐशो आराम का जीवन
भागती जिंदगी
दौडते लोग
आगे जानें की होड
रिश्तों में जोड
नजरें चुराते लोग
वहुत दु:खी होतीं हूँ
जब मुड कर देखतीं हूँ.....


प्रभा मित्तल 
~~अतीत के पन्ने~~
आज फिर यूँ ही अतीत के
बंद वो पन्ने पलट रही हूँ,
ढाई अक्षर जिए थे जिनमेंं
यहीं से था शुरु उम्र का रास्ता
मिलीं ज़िंदगी की सदायें नई।

कितना कुछ पाया जीवन में
ना जाने कब कहाँ खो गया
अपने भी सिमट गए अपने में
आस-पास रह गई मेरी तनहाई।

सुन्दर सा सलोना सपना मेरा
नयनों के कोरों से बह निकला
जो रह - रह कर मेरी आँखों में
खेल रहा था छुपम - छुपाई।

मन के सन्नाटे में घिर-घिर
आज फिर वो यादें याद आईं
भूली हुई, वादों की नाकामियाँ
कितने अनकहे दर्द समेट लाई।

मुड़कर फिर-फिर देखा तुमको
उस भीड़ भरी महफिल में मैंने,
डग भरते आगे निकल गए तुम
मैं पीछे संग लिए अपनी तनहाई।

चाहने को तो बहुत कुछ था,मगर
माँगूं भी क्या, अब ढल रही शाम
अख्तियार नहीं मेरी साँसों पर,
तुमसे जो मिला, सौगात हो गई।


भगवान सिंह जयाड़ा
-खामोशी--
------------------
दरो दिवार की खामोशियों को देख ,
आज मैं भी स्तब्ध खामोश हो गई,
बस कुछ धुंदली सी यादों के सहारे,
जिंदगी के जख्मों का दर्द सह गई,

घूरती रह गई हर खामोश कोनों को,
कहीँ तो कुछ उम्मीद की लौ मिले ,
बीते हुए उन लम्हों की यादों का,
दिल में आज फिर एक फूल खिले,

इंतजार आज भी किसी के आने का
खामोश हर राह को ताकती रहती हूँ
मिल जाये आशा की एक किरण ,
तन्हाइयों में सदा जागती रहती हूँ,
--------------------




ज्योति डंगवाल 
-----गाँव की अभिलाषा---

मैं खोजती खुदको
गुम कही अतीत के पैमाने में
हो रहा खंडहर
ये दर ओ दीवार

मन में करवट बदलता
एक अहसास है
गूंजी थी वो पहली किलकारी
तेरी मेरे ही मुहाने पे
यूँ खंडहर मेरे जिस्म को
क्यों चला तू छोड़ वीराने पे

वो नीम आम की डाली
वो चम्पा चमेली गुलाबों की क्यारी
बीते लम्हों की लौटा दो
मुझे सौगात न्यारी

मेरे आँगन का कलरव
वो खोयी सी रंगत
बूढ़े छतनार की जवानी
अपनी आँखों का पानी

मैं सुखद दिनों की आशा
अडिग आज भी
होके जर्जर संभलती हूँ
लिए जी रही हूँ एक अभिलाषा

एक दिन प्रिय तुम आओगे
मुझे सम्भाल सँवार
तीज होली गीत तुम गाओगे
डूबता मेरा अस्तित्व
तुम बचाओगे



Pushpa Tripathi
~वादों वाली बात~

वक्त के बदलते रिश्तें
अब तो अलसाया लगे
रेत में पानी का हिस्सा
अब तो बेगाना लगे !

सिसकते बूंदों की गठरी
दिल पर बोझ उठाते है
बीते दिनों की याद तो
अब कहर सा लगे !

क्यूँ वादो वाली बात
पीछे मुड़कर देखती है
जो कुछ अपना नही
अब वो अपना सा लगे !


कुसुम शर्मा 
विरह
-------
दूर कही गाँव मे बैठी
आज भी राह निहार रही
न जाने विरह अग्न मे
कितने अंशु बहा रही

हर पल हर क्षण वह ये सोचे
अब तो मिलन की बेला है
लेकिन वह ये क्या जाने
विरह ही उसकी जीवन बेला है

वादा करके भूल गया वो
बीच राह मे छोड़ गया वो
उसकी दिल मे आस लगाये
बैठी है वो राह निहारे

निंदा आँखो की छूट चुकी है
हँसना अब वो भूल चुकी है
प्रिया की आस लगाये दिल मे
दुनिया को वो भूल चुकी है !!





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