Sunday, November 1, 2015

२५ अक्तूबर २०१५ का चित्र और भाव





प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
~एक रिश्ता ~

सजाया था एहसासों से
बनाया था जिसे हमने अपने शब्द भावो से
एक रिश्ता अपना सा
आज वक्त के साथ बेगाना सा लगने लगा

दरवाज़ा बंद कर लिया अब
दिल का वो कमरा खंडहर नज़र आता है
एक हिस्सा बाकी है अभी
जो टूट कर मिट्टी में मिलना चाहता है

मुड़ कर देखा था उसने
तसल्ली आँखों से करना चाहते है वो
कुछ छूटा तो नहीं 'प्रतिबिंब'
लौटने का हर निशां मिटाना चाहते है वो

Kiran Srivastava 
" यादें"
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मिटते धरोहर
दरकती दिवारे
लगे मुझको ऐसे
हमें वो पुकारे
सिसकते हैं आंगन
और रोते चौबारे
आहत होती हूँ
जब मुड कर दखतीं हूँ.....

याद आती है
बचपन की शरारते
बाबा का प्यार
मां का दुलार
बच्चों की टोली
वो मीठी वाली गोली
सपनों में खो जातीं हूँ
जब मुडकर देखतीं हूँ.....

ऐशो आराम का जीवन
भागती जिंदगी
दौडते लोग
आगे जानें की होड
रिश्तों में जोड
नजरें चुराते लोग
वहुत दु:खी होतीं हूँ
जब मुड कर देखतीं हूँ.....


प्रभा मित्तल 
~~अतीत के पन्ने~~
आज फिर यूँ ही अतीत के
बंद वो पन्ने पलट रही हूँ,
ढाई अक्षर जिए थे जिनमेंं
यहीं से था शुरु उम्र का रास्ता
मिलीं ज़िंदगी की सदायें नई।

कितना कुछ पाया जीवन में
ना जाने कब कहाँ खो गया
अपने भी सिमट गए अपने में
आस-पास रह गई मेरी तनहाई।

सुन्दर सा सलोना सपना मेरा
नयनों के कोरों से बह निकला
जो रह - रह कर मेरी आँखों में
खेल रहा था छुपम - छुपाई।

मन के सन्नाटे में घिर-घिर
आज फिर वो यादें याद आईं
भूली हुई, वादों की नाकामियाँ
कितने अनकहे दर्द समेट लाई।

मुड़कर फिर-फिर देखा तुमको
उस भीड़ भरी महफिल में मैंने,
डग भरते आगे निकल गए तुम
मैं पीछे संग लिए अपनी तनहाई।

चाहने को तो बहुत कुछ था,मगर
माँगूं भी क्या, अब ढल रही शाम
अख्तियार नहीं मेरी साँसों पर,
तुमसे जो मिला, सौगात हो गई।


भगवान सिंह जयाड़ा
-खामोशी--
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दरो दिवार की खामोशियों को देख ,
आज मैं भी स्तब्ध खामोश हो गई,
बस कुछ धुंदली सी यादों के सहारे,
जिंदगी के जख्मों का दर्द सह गई,

घूरती रह गई हर खामोश कोनों को,
कहीँ तो कुछ उम्मीद की लौ मिले ,
बीते हुए उन लम्हों की यादों का,
दिल में आज फिर एक फूल खिले,

इंतजार आज भी किसी के आने का
खामोश हर राह को ताकती रहती हूँ
मिल जाये आशा की एक किरण ,
तन्हाइयों में सदा जागती रहती हूँ,
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ज्योति डंगवाल 
-----गाँव की अभिलाषा---

मैं खोजती खुदको
गुम कही अतीत के पैमाने में
हो रहा खंडहर
ये दर ओ दीवार

मन में करवट बदलता
एक अहसास है
गूंजी थी वो पहली किलकारी
तेरी मेरे ही मुहाने पे
यूँ खंडहर मेरे जिस्म को
क्यों चला तू छोड़ वीराने पे

वो नीम आम की डाली
वो चम्पा चमेली गुलाबों की क्यारी
बीते लम्हों की लौटा दो
मुझे सौगात न्यारी

मेरे आँगन का कलरव
वो खोयी सी रंगत
बूढ़े छतनार की जवानी
अपनी आँखों का पानी

मैं सुखद दिनों की आशा
अडिग आज भी
होके जर्जर संभलती हूँ
लिए जी रही हूँ एक अभिलाषा

एक दिन प्रिय तुम आओगे
मुझे सम्भाल सँवार
तीज होली गीत तुम गाओगे
डूबता मेरा अस्तित्व
तुम बचाओगे



Pushpa Tripathi
~वादों वाली बात~

वक्त के बदलते रिश्तें
अब तो अलसाया लगे
रेत में पानी का हिस्सा
अब तो बेगाना लगे !

सिसकते बूंदों की गठरी
दिल पर बोझ उठाते है
बीते दिनों की याद तो
अब कहर सा लगे !

क्यूँ वादो वाली बात
पीछे मुड़कर देखती है
जो कुछ अपना नही
अब वो अपना सा लगे !


कुसुम शर्मा 
विरह
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दूर कही गाँव मे बैठी
आज भी राह निहार रही
न जाने विरह अग्न मे
कितने अंशु बहा रही

हर पल हर क्षण वह ये सोचे
अब तो मिलन की बेला है
लेकिन वह ये क्या जाने
विरह ही उसकी जीवन बेला है

वादा करके भूल गया वो
बीच राह मे छोड़ गया वो
उसकी दिल मे आस लगाये
बैठी है वो राह निहारे

निंदा आँखो की छूट चुकी है
हँसना अब वो भूल चुकी है
प्रिया की आस लगाये दिल मे
दुनिया को वो भूल चुकी है !!





सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

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