Wednesday, February 3, 2016

२३ जनवरी २०१६ का चित्र और भाव






प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
पत्थर हो तुम ...

पत्थर हो तुम
पत्थर ही रहोगे
कल तक
जिस नदी का हिस्सा थे
वो आज
अविरल बहते बहते
किसी अनजान रास्तो से
चलकर दूर निकल गई
राह में तुमसे मुसाफिर
उन लहरों की थाप को
अपना मान चलते रहे
और आज फिर
तुम पत्थर हो गए
अब अस्तित्व तुम्हारा
केवल पत्थर ही कहलायेगा
हाँ उपहास करने
कोई बूँद या कोई लहर
तुम्हे सलहा जायेगी
अपना कह जायेगी
'प्रतिबिम्ब' बन
साथ दिख जायेगी
लेकिन फिर समय का
कालचक्र तुम्हे
पत्थर ही सिद्ध कर जाएगा ....


Kiran Srivastava 
~पत्थर दिल~


मेरी अनुनय-विनय
मान-मनुहार का
नही होता असर
क्यों बन बैठे हो
इतने निष्ठुर.....
क्यों भूला दिए
मेरीअच्छाई
मेरी सच्चाई को
मेरी सहजता
मेरी कठिनाई को.....
और कितनी उर्जा
और कितना ताप चाहिए
जिससे पिघल जाओ
तुम थोडा भी.....!!!!!


बालकृष्ण डी ध्यानी .
~देख के इन पत्थरों को~

देख के इन पत्थरों को
मेरा बिता बचपन याद आया
एक एक कर चुन कर रखते थे
वो छुपाया स्थान याद आया
देख के इन पत्थरों को ...............

जुडी हैं बहुत अनेक यादें उनसे
याद कर इन आँखों ने आंसूं का सुख पाया
उन दोस्तों को इन पत्थरों ने
फिर जोर से आवाज दे बुलाया
देख के इन पत्थरों को ...............

अब मैं भी पत्थर सा बन गया हूँ
उस में और मुझ में मैंने कोई फर्क ना पाया
वो तो सवेदना हीन है मुझको भी वो अब बना गया
भेद उस में और मुझ में अब और गहराया
देख के इन पत्थरों को ...............


भगवान सिंह जयाड़ा 
----नदी का पत्थर--
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बन कर सेतु इन पत्थरों ने,
हर कदमों को दिया सहारा,
दल दल भरी इस मिट्टी से,
हम सब को मिला किनारा,

कास हम इन से सीख लेते,
दे सकते किसी को सहारा,
दुःख में किसी का साथ देते,
तो अहोभाग्य होता हमारा,

बेजान पड़े यह पत्थर हमको,
जीने की राह शिखा जाते है,
पानी में बह कर घिस कर भी,
कुछ न कुछ भला कर जाते है,

जीवन शंघर्ष में मिलना बिछुड़ना,
यह दुनियां का पुराना दस्तूर है,
बहते पानी में कहाँ बह जायेंगे,
न तो हमारा ना तुम्हारा कशूर है,


नैनी ग्रोवर 
---पत्थर ----

नदी किनारे पड़े,
इन पत्थरों की तरह,
काश,
जज़्बात भी पत्थर होते,
किसी की भी ठोकर से,
जो पिघल उठते हैं,
सोचती हूँ, अब छोड़ दूँ,
इन जज़्बातों में बहना,
तक़दीर से लड़ना,
रोज़ सौ सौ बार मरना,
शिकवे शिकायतें करना,
और हो जाऊँ पथ्थर,
घर के शो केस में पड़ा,
एक ऐसा पत्थर,
जिसे नदी किनारे से लाकर,
कुछ रंग लगाकर,
रख दिया गया,
शायद आज कोई,
मुझपे पड़ी धूल पोंछे,
और पूछ ले,
कैसी तो तुम ?
और मैं मुस्कुरा के कहूँ,
पत्थर के जैसी....


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