Wednesday, June 1, 2016

तकब खुला मंच #1



तकब खुला मंच #1
समूह का यह पहला खुला मंच है. माह के अंतिम सप्ताह में प्रतियोगिता नही होगी. यह एक खुला मंच होगा चर्चा, परिचर्चा, समीक्षा हेतु. इस खुले मंच में हम एक युवा प्रतिभावान रचनाकार को आमंत्रित करेंगे. उनकी कविता के साथ एक चित्र प्रस्तुत करेंगे. परिचर्चा के दौरान वे ही आपकी रचनाओं की समीक्षा करेंगे - एडमिन किरण प्रतिबिम्ब
मित्रो इस बार हम मृदुभाषी, सरल, सच्चे व्यक्तित्व के युवा रचनाकार  "अमित आनंद पाण्डेय " जी का हम सभी स्वागत करते है और उन्हें आमंत्रित करते है इस खुले मंच की अध्यक्षता हेतु. वे आपकी रचनाओं को पढ़ेंगे और उन पर अपने विचार रखेंगे - स्वागत एवं आभार - शुभम
[धन्यवाद  अमित जी आपके समय व्  मार्गदर्शन हेतु ]
कुल १३  रचनाये 


नैनी ग्रोवर
~पागलपन ~

गुस्से में आपे से बाहर,
पगलाये से,
कौन हो तुम ?
जात पात के नाम पे,
ज़रा ज़रा सी बात पे,
लिए हाथों में हथियार,
एक दूजे को
मिटा देने को बेकरार,
हाँ हाँ फूंक दो गाड़ियाँ,
जला दो बसें,
नोच लो,
मेहँदी लगे हाथों की महक,
बस ज़रा रुक के
इतना तो बता दो
कौन हो तुम ?
धर्म के ठेकेदार ?
समाज के सरदार ?
या किसी और के
हाथों की कटार ?
दो पल को करो याद,
अपनी मासूम बहन को,
माँ बुहारती है रोज़,
उस अपने आँगन को,
छोड़ो, फेंको ये तलवार,
मत करो किसी पे वार,
लौट जाओ अपने घर,
नही है भला रास्ता इधर,
करो कानून पे भरोसा,
उसे उसका काम करने दो,
तुम क्यों चले आये ?
कठपुतली किसी की
बनने को ?
सुंदर है जीवन
इसे प्रेम से गुज़ारो,
भूलो छोटी छोटी बातें,
भूल अपनी सुधारो..!!


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
~मौत देना चाहते हो~

आखिर,
तुम सड़को पर उतर ही आये
अपने ईमान की बोली लगाने
नहीं जानता कौन है
तुम्हे नियंत्रित करने वाला आका
लेकिन जानता क़त्ल होते है
कोई भाई, कोई पिता, कोई काका


भीड़ में हथियार सहित देख
लगता ! तुमसा बुझदिल कोई नही
क्या मांग रहे हो
और किस से तुम मांग रहे हो
माना जायज होंगी मांगे
लेकिन अपने हक़ लिए कत्ल ?

तोड़ फोड़ कर
किसका नुकसान करते हो
भरपाई तो फिर
हमे तुम्हे ही करनी है
और बिन सोचे तुम
किसी का बेटा छीन रहे हो
किसी का भाई छीन रहे हो
किसी पत्नी की मांग उजाड़ रहे हो

दिल रखते हो या पत्थर
झांको भाई अपने अंदर
इंसान को इंसान समझो
अपने अंदर अपने को देखो
कल तुम् भी इस में
अपनी जान खो सकते हो
अपनी माँ का सोचो
अपने पिता का सोचो
अपनी बहन का सोचो
अपनी पत्नी का सोचो
अपने भाई का सोचो
अपने चाहने वालो का सोचो
उन्हें क्यों जीते जी
तुम मौत देना चाहते हो ..................



~सीमा अग्रवाल~ 
एक नज़्म

ये कौन है जो शब........हाथों में लिए घूमते हैं
ये तिनके आग के आँखों में लिए घूमते हैं

धुएं की शक्ल में आते हैं बिखर जाते हैं
सुकूं की आँख में आँसू से ठहर जाते हैं

कहीं हैरत कही सांसत कहीं वहशत बनकर
हर एक शहर में फैले हैं ये दहशत बन कर

दरो दीवार पे दिखते हैं ये .......दरारों से
बिछे हैं फ़िक्रो यकीं पर मुहीब सायों से

ये जो भी लोग हैं बेसिम्त हैं बीमार हैं ये
ये खुद ही खुद से हैं बेज़ार या अय्यार हैं ये

ये जो भी लोग हैं इंसान नहीं हो सकते
किसी खुशी का ये उनवान नहीं हो सकते

ज़रा सोचो ज़रा समझो ज़रा संभल जाओ
अब इनकी नस्ल को परखो ज़रा बदल जाओ

चलो फंसा लें उँगलियों में उंगलियाँ लाओ
जगा के अपनी खुदी होश में दुनिया आओ

बना लो सख्त इक घेरा अमन के चारो तरफ
शम्मएँ प्यार की रख दो चमन के चारो तरफ

कोई वहशी जो इस तरफ को चल के आयेगा
खुलूसो इश्क की आतिश में पिघल जाएगा..


आभा अग्रवाल 
'' भीड़ ''
मजहब ,धर्म ,वर्ग जाति
औ खिंच गई तलवार लो
पद -प्रतिष्ठा ,सामर्थ्य , आकांक्षा मोह
आ बसे सब लाठियों में ,रूढ़ियों की ताकतों में
वो व्यापारी है अभिलाषा का ,सौदाई महत्वाकांक्षा का -
हांकता वो भीड़ को बेचता सपने घृणा के
भीड़ -हाँ ! ये भीड़ है मस्तिष्क न हो शर्त जिसकी
हों कान औ कुछ कदम जो -
भेड़ों के रेवड़ से चलें ,
हो जोश पर सोचें न कुछ भी
चाहते हों काम करना
पर -------
मस्तिष्क से नहीं ,हाथों से -
नीले आसमान में उड़ने की हो चाहत सभी की
पर ------
तुम्हारे ! दिए पैसों के बल पे
प्रतिक्रिया मात्र में हो दिलचस्पी इनकी
समाज का दबाव -धर्म का दबाव
कुछ बनने का दबाव कुछ होने की चाहत
है ये विचारों के अंधड़ में डोलती भीड़
संपत्ति ,वर्ग ,जाति धर्म -
चक्रवात में फंसी भीड़
ऊँचे पद पाने की हो छटपटाहट
अस्तित्व तिरोहित होने का भय
दूसरा हावी हो न जाय
भयभीत भीड़ -
खो बैठती है संयम ।
भीड़ में शामिल सभी
राम - रहीम औ पीटर -
बाढ़ में बहने वाले फूल हैं
ये मोहरा हैं चंद -कुर्सी में बैठे ,
महत्वाकांक्षी स्वार्थी लोगों का ,
ये भूल गए ,
''मुझे
तरकारियाँ ले जानी हैं
माँ
रोटिया बेल रही होंगी!''
-( अमित )
माँ सभी को करती है एक सा प्रेम !
भीड़ ने अपना ली आंतरिक विसंगति ,
कोई आयेगा समझाने ,हम सचमुच में कौन हैं ?
प्रेम हमारा लक्ष्य है ,
मानवीय गरिमा हमारा ध्येय है -
ये प्रश्न है ?
इसे मैं यूँ ही छोड़ रही हूँ -
तब के लिये जब हम भीड़ नहीं होंगे !



किरण आर्य 
~हर आँख खून की प्यासी ~

हर तरफ फैली बदहवासी थी
फिजाओं में कुछ नाराज़ी थी
थम गईं हर किसी की साँसें
हर आँख खूब की प्यासी थीं।

हाथों में लिए वो खंजर थे
तौबा अजब वो मंजर थे
नफरतों का बाज़ार था गर्म,
हर आँख खून की प्यासी थीं।

जो जिस्म को छिपाए बैठी थी
अपने को अपने में समेटी थी
अस्मत कपड़ों से झाँक रही,
हर आँख खून की प्यासी थी।

वो नन्हा सा एक बालक था
खंजर ने कर दिया घायल था
धरती काँप रही शैतानियत से,
हर आँख खून की प्यासी थी।

वो मुठ्ठी भर जो दंगाई थे,
इंसान नहीं वो कसाई थे,
धर्म की भाँज रहे लाठियाँ
हर आँख खून की प्यासी थी।

जब भी थमेगा यह तूफान सुनो,
मिलेगा सुकून औ इत्मिनान सुनो
वीरानियाँ पूछेंगी बस यह सवाल,
क्यूँ हर आँख खून की प्यासी थी ?



मीनाक्षी कपूर मीनू 
~प्रश्नजाल~
................
स्वर्णिम भारत माँ
की आभा आज
ज़रा सी .....
धूमिल हो गयी
कसमसाहट हैं
उस बंधन की
जो शीशे की
डोर बन गयी ....
भारत माँ को
जकड- पकड़ के
कोशिश है रुलाने की
जगह जगह जख्म दे दिए
खून बना दिया पानी है
कोई लाठी उठी
बचाव के लिए
कोई उठी
बदलाव के लिए
कोई जायज़ मांग के लिए
कोई नाज़ायज़ हक़ के लिए
मगर पिसता इन सब के बीच
आम शरीफ इन्सान है
जूझता दो रोटी को
खाता मगर .....
गोली की मार है
घर से निकल सुबह शाम
पूरी करता घर की मांग
वापिस पहुँच पायेगा
ये तो अब बस
भगवान् से गुहार है
प्रश्नो के जाल में
उलझे हम सब प्राणी
*मनस्वी *....
इस उलझन को
सुलझाये कौन ....?
भारत माँ की
आन -बान को
'इन सब से '
अब बचाये कौन ....????



भगवान सिंह  जयाड़ा
~जन आक्रोश ~
--------------------------------------
आज फिर एक दूसरी अफवाह उड़ी है ,
फिर वही पहले वाली भीड़ उमड़ पड़ी है,
सायद वही फिर धर्म के नाम पर होगी ,
या फिर दलित और सवर्ण जात पर होगी ,
लेकर के हाथों में लाठी डंडे और हथियार ,
बस हर तरफ यह मची है कैसी काट मार ,
जान का दुश्मन बना इन्शान,इन्शान का ,
धर कर बेबजह भयानक रूप हैवान का ,
आग यह फैलाई किसने क्यों और कब ,
बस मरने मारने पर उतारू हो रखे यह सब,
बस मौन खड़ा हो कर हर यह देख रहा है ,
दिल के जख्मो को दिल में ही सह रहा है ,
कुछ लोग अपना ही घर बर्बाद कर रहे है ,
और खुद की बर्बादी का जश्न मना रहे है ,
दुवा है ऊपर वाले से सब को सद्बुद्धि देना,
हे ईश्वर हमारे अंदर के शैतान को हर लेना ,
वह अमन चैन और सुख समिर्द्धि लौटा देना ,
सर्वधर्म और जात पाँत में विशवास  लौटा देना ,



Sunita Pushpraj Pandey
~दंगे की आँच~
दंगे की आँच मे झुलस रहा था
मेरा भारत महान
उसी दंगे की आड़ में
उपद्रवी मचा रहे थे हाहाकार
लूट रहे थे माँ बहनों की इज्जत
जला रहे थे घर बार
वही कही किसी कोने मे
पेट में रोटी की खातिर
सिसक रहे थे नौनिहाल
रोजी रोटी के जुगाड़ को
घर से निकलता पिता लाचार
उल्टा लौट के आ जाता घर को
पुलिस के डंडे खा दो चार


बालकृष्ण डी ध्यानी
~एक पत्थर~

एक पत्थर
हिन्दू का
एक पत्थर
मुस्लिम का
मकसद
बस नेतों का
किस्सा
वो अपनों का
खून की बौछारें
अपने ही वो
गलियारें
मातम है
माँ बहनो का
वो
एक पत्थर



Pushpa Tripathi 
~ना ये खूनी खेल दिखाओ~ .

ओह्ह कितना आक्रोश है
उनकी दुश्मनी में जान है
देना चाहते है जिस्म पर लाठी
गद्दार कितना ... हैवान है !

इंशा नहीं, इस मुल्क में रहते हो
जन्म वतन सरजमीं पर जीते हो
कौन हो तुम किसके लिए करते हो
मजहब के नाम पर दहशत ढाहते हो !

तुम क्या जानो इंसानियत क्या है
आम आदमी की मजबूरी क्या है
पीसकर आता कष्ट मेहनत से वो
सड़कों पर तुम तब लाठी बरसाते हो !

ओ इंशा के पक्के दुश्मन
अमन के नाम पर ठहर जाओ
फेंक दो लाठी बुराई का तुम
खुद भी जियों और जीने दो !

घर किसी का राह देखता
परिवार उसके ही दम से चलता
बक्श दो उनको ... दूर हो जाओ
आतंक का ना ये खूनी खेल दिखाओ !



प्रभा मित्तल.
~~ दहशत ~~

हाथों में खंजर है
खौफ़नाक मंजर है
चीख और धमाकों से
गूँजता सन्नाटा है।

खाने को रोटी नहीं
हथियार तो अपार हैं
गलियों और सड़कों में
लाशों के अम्बार हैं।

रक्त रंजित देह लेकर
बच्चे -बूढ़े,निरपराध
आतंक से भरे,डरे-डरे
मर-मर कर जी रहे ।

मानव ही मानव को
देखो तो कैसे छल रहा
कहीं मज़हब कहीं ईमान
आज चिता पर जल रहा।

अपने ही साए से अब
सहमी दुनिया सारी है
बाँधकर हाथ अपने
लुटने की लाचारी है।

हर रात काली और
हर सहर मुरझाई है
दहशत में डूबी हुई
सूनी पड़ी अमराई है।

धिक्कार है मनुज तुझे
नियतियाँ नित कह रही,
हिंसक भाव सभी तज दे ,
खूनी खेल कर खत्म यहीं।

कोई तो दिन ऐसा होगा
जब ज्योति पुंज प्रखर
फूट पड़ेगी सहसा ही,
निर्भय हो प्रकाश में रवि के
जी जाएगा ये जग भी।

--


डॉली अग्रवाल
~मायाजाल~

सियासत में बेठे , शतरंज खेल रहे लोग
मोहरो की तरह एक दूसरे को पीट रहे लोग !
दरन्दगी की हद से गुजर रहे लोग
जाने कौन सी इच्छा पूर्ति कर रहे लोग !
जान का कोई मोल नहीं , सोच नाच रहे लोग
खून का व्यापार करने वाले , जेब भर रहे लोग !
झगड़े , हमले , आंतक भारी है चारो और
हिन्दू , मुस्लिम की जात नहीं , पिसते जा रहे आम लोग
सुनो ,
मेरे वतन में हिन्दू भी बहुत , मुस्लिम भी बहुत है ---
बस इंसानो की इंसानियत से खाली है लोग



Prerna Mittal 
~झुंड मानसिकता~

चौड़ी सड़क पर सुबह-सुबह,
प्रातःकाल के भ्रमण के वक़्त,
क़दम ठिठके सुनकर कुछ शोर,
सतर्कता से बढ़े, देखते चहूँ ओर ।

मोड़ आते ही देखी भीड़ बहुत बड़ी,
हाथों में दण्ड और लाठी सधी हुई ।
जिज्ञासावश झुण्ड की तरफ़ क़दम बढ़ाया,
एक नेता टाइप लड़के को इशारे से बुलाया ।

आते ही दबंग, एक टेढ़ी हँसी मुस्कुराया,
पूछा, आज सड़कों को क्यों अखाड़ा बनाया ।
बोला, महँगाई छू रही आसमान,
टमाटर, प्याज़ हो या घर का कोई सामान ।

आज हम सरकार को मज़ा चखाएँगे,
मंत्री के निवास पर धरना बिठाएँगे ।
माननी ही पड़ेंगी आज उन्हें हमारी माँगे,
नहीं तो जान से हाथ धोएँगे या तुड़वाएँगे टाँगे ।

आगे भीड़ में एक संभ्रांत सा आदमी,
पूछा, आप क्यों यहाँ, आपको क्या कमी?
बोला, सोचते ही रहे हमेशा करें विरोध,
मनमानी व अन्याय का लें प्रतिशोध ।

आज इस युवा ने नि:स्वार्थ क़दम बढ़ाया है,
हम सबमें उत्साह और विश्वास जगाया है ।
अब तो ना पीछे हटेंगे,
मारेंगे उन्हें या स्वयं मरेंगे ।

सोचा एक मिला पथप्रदर्शक और एक पिछलग्गू
मन में आया किसी एक और से करूँ गुफ़्तगू
भीड़ के पीछे नज़र आया एक निराला व्यक्तित्व
पूछा, क्यों भाई कहाँ चल दिए छोड़कर सर्व कृत्य

बोला, लक्ष्य प्राप्ति का बीड़ा उठाया है,
क्या लक्ष्य ? मन में तुमने कौतूहल जगाया है !
सब कर रहे हैं तो कुछ अच्छा ही होगा
उद्देश्य कुछ महत और सच्चा ही होगा ।

मैंने तुरंत किया सदन की ओर प्रस्थान
दिल में आया मेरा भारत महान



अलका गुप्ता
__आतंकवाद ___

जल रहे गीता कुरान भी ...
साम्प्रदायिकता की आग में ।
वहशत नग्न नाच रही ...
शस्त्र लिए हाथ में ।
आत्मा ही मर गई जिनकी ।
मानवता को कुचल उनकी ।
यही आतंकवाद है ...
क्या यही जेहाद है...?
प्रश्न लाचार खड़ा..मौन क्यूँ ?
जब तडफ रही ...हर तरफ ।
हर दिल ...हर आँख है ।।

___________अलका गुप्ता_____



Kiran Srivastava
 " सियासी चाल"
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कुछ आराजक तत्व
बस! लगातें हैं चिंगारी...
फिर होतें हैं ,
सिलसिलेवार दंगे...
त्राहि-त्राहि चहुंओर
कितने मारे जातें हैं
बेगुनाह लोग...
कितने हो जातें है
बच्चें अनाथ...
देश की दुषित राजनीति
सियासी चाल...
कहीं वोट के लिए दंगे
कहीं नोट के लिए दंगे
कहीं मंदिर-मस्जिद
कहीं मुल्क-राज्य के लिए
कही बदले के लिए दंगे...

दंगाई नहीं होते जन्मजात
हैं ये अयोग्यता के पोषक
अल्प स्वार्थकारी..
दूसरों के हाथों की
कठपुतली मात्र...
नहीं जानते इनका भी
हो सकता है यही हश्र..
अरे! भारत मां के सपूतों
बुद्धि-विवेक का करो उपयोग
देश की आन-बान के लिए
कुछ तो करो सहयोग..!!!!!

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सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

1 comment:

  1. उत्कृष्ट मंच , शुभकामनायें सभी को ,यूँ तो बंधन में रह कर लिखना कविता नही हो सकता क्यूंकि कविता तो स्वयं उतरती है मन में ,पर यहाँ अनुभव हो रहा है कविता बंधन में भी उगती है ,बीज बोने की देर है -प्रयास के लिए शुभकामनायें .

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शुक्रिया आपकी टिप्पणी के लिए !!!