Saturday, June 25, 2016

‎तकब ६ - [ तस्वीर क्या बोले प्रतियोगिता 6 ]





‪#‎तकब६‬ [ तस्वीर क्या बोले प्रतियोगिता #6 ]
मित्रो लीजिये अगली प्रतियोगिता आपके सम्मुख है. नियम निम्नलिखित है 
१. दिए गए दो चित्रों में अंग्रेजी में कुछ लिखा गया है दोनों में सामंजस्य बिठा कर [ चित्रऔरलिखे पर] कम से कम १० पंक्तियों की रचना शीर्षक सहित होनी अनिवार्य है [ हर प्रतियोगी को एक ही रचना लिखने की अनुमति है.] 
यह हिन्दी को समर्पित मंच है तो हिन्दी के शब्दों का ही प्रयोग करिए जहाँ तक संभव हो. चयन में इसे महत्व दिया जाएगा.
[एक निवेदन- टाइपिंग के कारण शब्द गलत न पोस्ट हों यह ध्यान रखिये. अपनी रचना को पोस्ट करने से पहले एक दो बार अवश्य पढ़े]
२. रचना के अंत में कम से कम दो पंक्तियाँ लिखनी है कि आपने रचना में उदृत भाव किस कारण या सोच से दिया है, 
३. प्रतियोगिता में आपके भाव अपने और नए होने चाहिए. 
४. प्रतियोगिता २३ जून २०१६ की रात्रि को समाप्त होगी.
५. अन्य रचनाओं को पसंद कीजिये, कोई अन्य बात न लिखी जाए, हाँ कोई शंका/प्रश्न हो तो लिखिए जिसे समाधान होते ही हटा लीजियेगा.
६.आपकी रचित रचना को कहीं सांझा न कीजिये जब तक प्रतियोगिता समाप्त न हो और उसकी विद्धिवत घोषणा न हो एवं ब्लॉग में प्रकशित न हो.
विशेष : यह समूह सभी सदस्य हेतू है और जो निर्णायक दल के सदस्य है वे भी इस प्रतियोगिता में शामिल है हाँ वे अपनी रचना को नही चुन सकते लेकिन अन्य सदस्य चुन सकते है. सभी का चयन गोपनीय ही होगा जब तक एडमिन विजेता की घोषणा न कर ले.

इस बार के विजेता है  श्री मदन मोहन थपलियाल 'शैल'


Kiran Srivastava
"कर्म-लेखा"
======================

कर्म सदा करते जाना है
चाहा जो उसको पाना है
नहीं अडिग कर्तव्य पथ से
नहीं भाग्य पे इतराना है..!!
पहले से ही सब तय है
ईश्वर ही कर्ता-धर्ता है,
जो लिखा है किस्मत में
वो भाग कर आयेगा
जाना है गर किस्मत से
आकर भी चला जायेगा,
हम तो बस कठपुतली हैं
डोरी उसके हाथों में
वही चलाता वही नचाता
हम बस चलते जातें हैं
मनुज समझ नहीं पाता
सोचे वो भाग्य-विधाता है
जितना किस्मत में है उसके
उतना ही वो पाता हैं ,...!!!!

टिप्पणी- मनुष्य खुद को सर्वकारी समझता है ।जो की सत्य नहीं है । हम सब किसी अदृश्य शक्ति के अधीन हैं,और उसी के अनुसार कर्म करते हैं ।


बालकृष्ण डी ध्यानी
*********
~भाव मेरे~

भाव मेरे उड़ चले हैं
आज सब उड़ चले कहाँ
शब्द ना मिले मुझे
आज सब वो खो गये कहाँ

सब कुछ वो मेरे लिये था
इसका ना कभी पता चला
व्यर्थ ही जीवन मेरा आज
धूल संग उड़ चला कहाँ

कुछ उसने था लिखा
उसे ना मैं फिर लिख सका
जैसा भी हो मैं तो जी लिया
जो भी होगा उसने लिखा

बेफिक्री मौसम था वो मेरा
मेरे चारों तरफ जो बिखरा
मदहोश होकर घूमता रहा
बस मैं अपने आप से जुड़ा

भाव मेरे उड़ चले हैं ...



टिप्पणी : अपने भावों को खोजता जीवन, जैसा मिले वैसा जी रहा जीवन ,बेफिक्री में फिरता जीवन , अपने आप से लगा हुआ जीवन , मदहोश होकर घूमता जीवन


सुशील जोशी 
“आज का सत्य”
******************************************
इन्साँ ही गलती करते हैं, क्योंकि वे भगवान नहीं,
जानबूझ कर गलती करने वाले पर नादान नहीं,
लगे रहो तुम कोशिश में या लालच दो घर भरने का,
ईमान बेचकर शोहरत पाने वाला मैं इन्सान नहीं।

नहीं चाहिए ऐसा बंगला चमक हो जिसमें सट्टे की,
नहीं चाहिए दौलत जिसमें बू आती हो कट्टे की,
जो चोरी को अपना समझे ना चाहूँ उस यारी को,
ठुकराता हूँ ऐसे लोगों को उनकी मक्कारी को,
भले रहूँ गुमनामी में चाहूँ झूठा सम्मान नहीं,
ईमान बेचकर शोहरत पाने वाला मैं इन्सान नहीं।

सबका लेखा जोखा लिखकर भेजा ऊपर वाले ने,
लेकिन हम हैं जो उस सब को रख बैठे हैं ताले में,
आज हम अपने इन्साँ होने का भी सत्य भुला बैठे,
कर्म की लेकर आड़ कुकर्मों से खुद ईश रुला बैठे,
गीता के उपदेश नदारद और कहीं कुरआन नहीं,
ईमान बेचकर शोहरत पाने वाला मैं इन्सान नहीं।


टिप्पणी : आजकल के माहौल को देखते हुए अपने चरित्र चित्रण को माध्यम बनाकर मैंने सही और गलत बताने का प्रयास किया है। यद्दपि पता नहीं चित्र के साथ पूर्ण न्याय करने में मैं कितना सफल हुआ किंतु जो मन में भाव उभरे उन्हें यहाँ लिख दिया।


नैनी ग्रोवर 
~जो होना है सो होगा~

जो होना है सो होगा,
विधाता का लिखा है,
उसके लिखे को पढ़ पाना,
भला कौन सीखा है ...
मैं क्यों देखूँ,
किसी और का धर्म है क्या,
क्यों ना सोचूँ,
के मेरा अपना कर्म है क्या,
क्यों कड़वे बोल से,
किसी का मन में दुखाऊँ,
क्यों निंदा करूँ किसी की,
पाप का बोझ उठाऊं,
कर सकती नही भला,
तो किसी का बुरा भी क्यों करूँ,
किसी के मासूम सपनो को,
मैं चूरा-चूरा भी क्यों करूँ,
कौन जाने, कौन हे सच्चा,
कौन है झूठा जहान में,
स्वयं को देखूँ, भीतर तक तो,
हैं सारे ही, कर्म नादान से..!!

टिप्पणी... इंसान अपने कर्म ना देख कर दूसरों पे उंगली उठाता है, अपने किये गन्दे कर्मों को भूल जाता है ।


गोपेश दशोरा
~नियति और कर्म~

जब वो ही लिखने वाला है, और वो ही मिटाने वाला है,
किस बात का तुझको ग़म इंसा, किस बात पे तु इतराता है।
देकर जीवन उसने तुझको, अपना कर्म साकार किया,
माथे पे लिखकर किस्मत को, हाथों में उसे आकार दिया।
जो लिखा है तुझको पता नहीं, फिर हार मान क्यूं बैठा है,
मेहनत कर ले मिल जाएगा, आखिर तु उसका बेटा है।
यह जीवन सागर ऐसा है, जो जितना गहरा जाता है,
उसको ही मोती मिलते हैं, वो ही तर बाहर आता है।
हाथों पर धर कर हाथ यहाँ, कुछ होगा, सोचते रहते है,
कुछ भी नहीं मिलता उनको, किस्मत को रोते रहते है।
जो लिखा हुआ है किस्मत में, निश्चित तु एक दिन पाएगा,
पर कर्म तुझे करना होगा, वरना सब फिसला जाएगा।
जो मिला उसे सर्वस्व मान, बहुतों को यह भी मिला नहीं,
ईश्वर है तेरे साथ सदा, सच्चों को उसने छला नहीं।
अन्तर्मन में झांक के देख, है ईश्वर तेरे अन्दर ही,
भला-बुरा सब देख रहा, है कुछ भी उससे छिपा नहीं।
कर्म कर सच्चे मन से, मत फल की आशा कर पगले,
संतोष परम सुख मान सदा, बदलेंगे तेरे दिन अगले।
मत हार समझ अपनी नियति, उसने भुजबल है तुझको दिया,
विपरीत चला जो धारों के, उसने सच्चा जीवन है जिया।

टिप्पणीः कुछ लोग एक या दो असफलता के बाद उसे ही अपनी नियति मानने लगते है और कहते है कि ईश्वर नहीं होने दे रहा। जबकि कमीं उनके प्रयासों में होती है। यदि पूरे मन से प्रयास करें तो ईश्वर भी साथ देता है और सफलता निश्चित मिलती है। हो सकता है कि सफलता एक निश्चित प्रयास के बाद ही लिखी हो।


प्रभा मित्तल
~~विधि का लेखा~~
~~~~~~~~~~~~~
मन तू उठ चल ! धीरज धर,
अधिकार नहीं तेरा जिस पर
क्यों फिर तड़पन इतनी उस पर,
विधि ने दिया जो,ले ले हँस कर ,
क्यों रोता है पगले नर होकर।

मन में रखकर विश्वास अटल ,
दूर हटा दे पथ का पत्थर,
अन्य किसी से आशा मत कर
अपना मन पहले अपना कर,
अधिकार जता फिर औरों पर।

उठ, मिटने के मत कारज कर,
आँधी-तूफानों से घबराकर
क्यों बैठ गया है साहस खोकर,
जो बदा है भाग्य में तेरे,वो तो
निश्चय ही पाएगा आगे बढ़कर।

नहीं मिला संतोष कभी भी
किसी और पर दृष्टि गड़ाकर
तेरा - मेरा करते-करते ही
मिट जाएगा जीवन नश्वर।
गर ढूँढे तो मिल जाएगा -
पारस मणि तेरे ही घर पर।

तेरा सुख है तेरे ही कर्मों पर निर्भर,
दूजे के कन्धों पर चढ़कर,क्या
देख सका कोई जग सत्वर।
अरे! मंजिल तक पहुँचेगा राही
अपने ही पैरों से चलकर।

हाँ..ये सच ही तो है ...
मंजिल तक पहुँचेगा राही
अपने ही पैरों से चलकर।

टिप्पणी: मनुष्य हमेशा दूसरों के सुख को अपने से अधिक आँकता हैं ...ऐसे में मानव-मन को सम्बोधित करते हुए,जो मिला उसमें ही संतुष्ट रहने और कर्म पर विश्वास रखने की सलाह देने की कोशिश की है।



प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
~ कर उद्धार ~

कर्म होता आधार
बनता नियति का सार
रचता है वो
सजता व् सवंरता मनुष्य
कैसे कोई मिटाए
किस्मत का लेखा
राजा से रंक
फकीर कोई बादशाह बनता
नियति से सोच
बदलती जाती है
अच्छा या बुरा
फिर मनुष्य करता जाता
भाग्य है प्रधान
कर्म बने पहचान
जीवन का सच
तू इसे मान न मान
कर ले ध्यान
पास तेरे भगवान
आज नही तो
कल मिलेगी तुझे पहचान
मन से शुद्ध
अपना पवित्र संस्कार
छोड़ उस पर
कर खुद का उद्धार

टिप्पणी:  नियति को मान चलता हूँ कर्म को आधार समझ बढ़ता हूँ .. सफल असफल खुद फैसला करता हूँ.


किरण आर्य 
---नियति---

जिन्दगी में नियत है सब
नियति से बंधा है जीवन और जीव
जिस तरह शब्द विचरते ब्रहमांड में
वैसे ही आत्मा बदल चौला बदलती है रूप
संस्कारों और नियति से बंधा जीवन
हर चरण को करता है पूरा

कर्म करते है नियत संस्कारों को
सुकर्म करते है अमरता प्रदान
नाम और जीवन को
कुकर्म कर जाते है कलंकित
जीवन को नरक है बनाते

एक शक्ति अलौकिक सी
करती सञ्चालन जीवन चक्र का
जीवन से मृत्यु पथ तक
जो लिखा गया वो मिटा नहीं
जो बीत गया समय वो लौटा नहीं

समय का चक्र बड़ा बलवान
बस कर्मों का खेला है जीवन
सुकर्म कर और आगे बढ़
जीवन को दे तू राह सही
बाकी कर मत चिंता तू

सब छोड़ उस परमात्मा पर तू
हो जा निश्चिन्त और निफ्राम तू
सब कुछ तुझमे और तुझ तक है
कुछ भी न अलग हाँ तुझसे है
आत्मा में बसे वहीँ राम रहीम
वहीँ है ईसा घनश्याम करीम

आत्मा भी तू परमात्मा भी तू
प्रकृति भी तू सृष्टि भी है तू
नश्वरता से अमरता तक
पंचतत्वों का है सार भी तू
आस भी तू विश्वास भी तू

अतृप्ति से तृप्ति का आकार भी तू
साकार भी तू निराकार भी तू
तुझसे ही शुरू है ख़त्म तुझी पे
ये समझ ले बन्दे बस तू ही तू..............

टिप्पणी: नियति तो अपनी चाल चलती है लेकिन अगर प्रारब्ध का फल मान लिया जाए जीवन को तो मनुष्य को सतकर्म करते हुए जीवन बिताना चाहिए



डॉली अग्रवाल 
~कर्म~

जन्मों का किस्सा
कर्मो का हिस्सा
कार्य और कारण
यूँही नही बनते !

साँस आनी जानी है
ज़िन्दगी बड़ी सयानी है
आखिर ढल ही जानी है
धूप की कहानी है !

कश्ती का रखवाला
कश्ती डुबोता है
शिकायतों का दौर
बड़ा बेमानी है !

जागता है अंधियारा
उजियारा सोता है
हर एक को विधाता
नाच करवाता है !

रिश्ते नाते , अपने परायो
की माला वो पिरोता है
नियति का नाम दे
ता -- ता थैया
करवाता है !

ज़िन्दगी की डोर थामे
गरूर वो तोड़ देता है
जब मन में आये तो
साँस भी खींच लेता है !

टिप्पणी: मिट्टी का शरीर न तेरा न मेरा -- रेत के घरौंदे है बनते है मिट जाते है ! आस्था और विश्वास जो हुआ अच्छा हुआ , जो होगा वो भी अच्छा होगा !!


Ajai Agarwal
===विधना (नियति +कर्म ) ===

मैं क्या हूँ ? इक कठपुतली !
विधना के हाथों से फिसली
विधना ही खेल खिलाती है
ये हर क्षण मुझे नचाती है ,
निज से निज की पहचान करूं
कैसे आगत का मान करूं ?
मुझको लिखकर अपनी मसि से
मुझमें ही छिपा दिया तूने !
द्वार झरोखे तन मन में !
पर फिर भी भेद नहीं पाऊं ?
तू मुझमे है ,मैं तुझमे हूँ
सदियों से सदियों तक खेल यही !
तब भी जब तू मुझ में थी ,
औ मैं अज्ञानी अंजान रही !
अब भी जब तू मुझमे है
अर मैं तुझको पहचान गई ।
जब मैं ही तू हूँ , तू ही मैं
फिर सगरा विश्व हुआ मेरा
अब ''मैं'' कहीं खोने को है -
तू ही तू है तू ही तू है।
मैं बादलों की क्यारियों से -
बरसती मोती की झालर ,
उषा की सिन्दूरि आभा ,
कुमकुम चूर्ण सी प्राची में बिखरी।
बात करूं कभी मैं तुम संग ,
कभी मैं आस करूं तेरी--
अपने तन में मेहमान रहूं
हाँ मैं हूँ तेरी कठपुतली !
ये सूरज चंदा मेरे हैं ,
नभ के सब तारे मेरे हैं ,
वन -पर्वत नदियाँ सागर ,
सब मेरे लिये -सब मेरे हैं।
झरनों सा बहता मन मेरा ,
ताल-तलैया नयन मेरे ,
सदियों की यादों के जंगल ,
है मन में रोप दिये तूने।
तू विशवास मैं तेरी अभिव्यक्ति ,
तू संस्कृति मैं इतिहास तेरा ,
तू रूढ़ कल्पना -विस्तार हूँ मैं
तू सौंदर्य और मैं चेतनता।
सब मेरा है ,तो मैं हूँ कहाँ ?
विधना ; ये सब तेरी लीला है !
है -भविष्य यदि अंधियारे में
तो ,भूत कहां उजियारा है
तड़ित की क्षणिक चमक ही
बादलों का भाग्य लेखा।
कैसे पढूं ? क्यूँकर पढूं !
जब हाथ में तेरे ही सब है
तू दीर्घ रूप नारायण है -
लघु रूप तेरा मैं तो नर हूँ।
विधना की स्याही के अक्षर
विधना ही बस तू ही पढ़ सकती
जीवन पारद माला जैसा
इक चोट लगी औ बिखर गया
जीवन ,नदिया -सागर की लहरें
पानी में लिखी लिखाई है।
भाग्य-भाग्य को क्यूँ रोऊँ ,
सत्ता तेरी कानून तेरा
मैं कुसुमों का सौरभ बनकर
पवन सुवासित बन जाऊं
विधना तू दे वरदान मुझे ,
अभिलाषा मेरी हो - लेख तेरा।।

टिप्पणी ------दो चित्रों के भाव इस कविता की प्रेरणा -- सब पूर्व लिखित ,नियति कठोर है अपने नियम नहीं तोड़ती -कर्मों का फल ,कुछ संचित अपने , कुछ पूर्वजों के --हानि लाभ जीवन मरण यश -अपयश विधि हाथ --शुभ कर्म समर्पित भाव से किये जाएँ ,तो its all about me --

Madan Mohan Thapliyal 

~ऊहापोह~

बार -बार एक प्रश्न,
कुन्द बुद्धि जाग जरा,
क्षीण होता है सब,
जब दस्तक देती जरा.

हंस रहा गगन,
किंकर्तव्यविमूढ़ वसुन्धरा,
भाग्य की ए वैतरणी,
क्या लिखा क्या धरा ?

विधाता ने सब लिखा
सयाने ए कह गए,
मिट सकता नहीं लेख,
हम हतप्रभ रह गए.

कोई करे पाप घनेरे,
क्यों है समाज कोसता,
छोड़ दें कहना सब
विधाता का है किया धरा.

तिलिस्म है जिन्दगी,
भाग्य में है क्या बदा ?
मायने टटोल जिन्दगी के,
कहानी ए रहेगी सदा.

जो करे ओ करे,
क्या सोचना श्रेष्ठ है,
स्वयं को निष्क्रिय रखना,
क्या यथेष्ट है ?

मेरा काम नहीं सोचना,
अगर सब उसी का है रचा,
बुद्धि विवेक का फिर काम क्या,
नाहक शोर है मचा.

मृत्यु उसकी बानगी,
प्रलय की डोर उसके हाथ,
यहीं धरा रह जाएगा,
कुछ था नहीं तेरे साथ.

कर पुरुषार्थ,
कुछ भी अकर्मण्य नहीं
सब है खरा-खरा,
नसीब को न बना संगिनी,
नाहक नसीब से है डरा !!!! *********।

टिप्पणी: ईश्वर के लेख को कोई मिटा नहीं सकता, लेकिन भाग्य के भरोसे हाथ पर हाथ धर कर बैठना भी बुद्धिमत्ता नहीं. पुरुषार्थ करना ही मानव का कर्म और धर्म दोनों हैं.


Prerna Mittal 
~आस्थावान या अहंकारी {दो विरोधी व्यक्तित्व }~

सृष्टि का सारा क्रम चलता, प्रभु के एक इशारे पर
क्या है प्रारब्ध, भविष्य है क्या ? उसके ही सिर्फ़ सहारे पर
अनहोनी होती कभी नहीं, जो होता है, वह होता है ।
वैसे ही फल तो पाएगा, जो जैसे बीज को बोता है ।
अच्छा तो अच्छा, बुरे को भी स्वीकार तो करना ही होगा ।
प्रारब्ध कहो, क़िस्मत कह दो या भाग्य कुछ तो कहना होगा ।
कैसा होगा भविष्य? इसको तो कोई ना जान सका ।
कल बहुत दूर, अगले ही पल को कोई ना पहचान सका ।
होनी और भाग्य, मरण, जीवन, यश, धन सब ईश की माया है ।
वह महाशक्ति है, सघन वृक्ष, जीवन उसकी ही छाया है ।

इसके विपरीत भाग्य को जो केवल पुरुषार्थ मानते हैं ।
वे अहंकार के वश होकर, सत्यता नहीं पहचानते हैं ।
गीता में योगेश्वर प्रभु ने पुरुषार्थ कर्म सब बतलाया ।
है सिर्फ़ कर्म मानव के लिए, फल इच्छित कब ?किसने पाया ?
सारे दोषों में मानव के, है अहंकार ही दोष बड़ा ।
जब मैं-मैं-मैं-मैं का डमरू बजा तो समझो ! सब कुछ नष्ट हुआ ।
मैं-मैं करने वाले को कब आवाज किसी की आती है ?
बकरी भी मैं-मैं करती है और गले छुरी फिरवाती है ।
था एक सिकंदर अति महान, दुनिया को सारी जीता था ।
दो गज़ ज़मीन ही है नियति, यह उसकी मृत्यु से सीखा था ।
बस दूर करो ये ग़लत भ्रांतियाँ, तुम कुछ भी नहीं कर सकते हो ।
उस महाशक्ति के बिना कहो क्या, एक भी डग चल सकते हो ?
भूतल से, जल से पशु-पक्षी क्यों नहीं उपजते हैं, बोलो?
पेड़ों से, पत्तों से मनुज क्यों नहीं पैदा होते बोलो ?
इतना तो बतलाना होगा, क्रमबद्ध क्रियाएँ क्यों चलती हैं ?
लपटें उठतीं क्यों ऊपर को, धारा क्यों नीचे बहती है ?

टिप्पणी : भाग्य बहुत बलवान होता है ।कर्म करना मनुष्य के हाथ में है, परंतु फल उसकी क़िस्मत के अनुसार ही मिलेगा । नियति के संचालक सिर्फ़ सृष्टि के नियंता हैं और कोई नहीं ।



अलका गुप्ता 
~हर मकां मुहब्बत का~
~~~~~~~~~~~~~~
कयास में बहु रूपों का.. टेरा लगता है |
चर्च मंदिर मस्जिद का फेरा लगता है |
हर जर्रा करे है...तेरा ही जब इशारा...
क्यूँ धर्मों का अलग से बसेरा लगता है ||

छूटें ...हे नाथ ...मायाबी ...बन्धनों से !
निकाल अंधियारे इन अति-गुम्फनों से !
शान्ति स्पंदन से भर देना जीवन ये ...
कर मुक्त ईश मुझे इन भव-उलझनों से !!

मजहब एक ही..इंसानियत...चलाया जाए !
हर मकां मुहब्बत का धरा पर बसाया जाए !
बुझा आग़ नफरतों की..बहा दरिया सीने में...
दुनिया-बे-समंदर...प्रेम ही...छलकाया जाए !!

करें अराधना आओ इंसानियत की |
मूल्यांकन करें पूजा नैतिक धर्म की |
ढकोसला धर्म का अवधारणा झूठी ..
चरित्र ही धर्म है इबादत उस ख़ुदा की ||

ईश ! वही परमपिता परमात्मा..एक है !
आत्मा प्रकृति ..रूप परिवर्तित अनेक है !
स्वामी एक वही सबका..अजर अमर वो..
घट-घट..व्यापी न्यायी उपकारी नेक है !!


टिप्पणी --इंग्लिश मुझे बहुत नहीं आती ..जितना मुझे मेरी बुद्धि ने समझाया उसी हिसाब से लिखने का प्रयास किया है... इंसानियत ही सबसे बड़ा धर्म है |जहाँ कहीं से पुकारो सुनने वाला हर तरफ एक ही ईश है ! ...चाहें ...जिस नाम से पुकार लो उसको..| उसने हमें इंसान बनाया .. तो हमें भी बस इंसानियत का निर्वाह या कर्म करना चाहिए बिना किसी दुनियाबी धर्म के झूठे ढकोसलों में पड़े |



कुसुम शर्मा 
~..ख़ाली हाथ ही जाएगा~
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तू-तू मै-मै करते - करते
एक दिन तू मर जाएगा !
क्या लाया था साथ
जो साथ तू ले जाएगा !

पाँच तत्व का बना शरीर
उन्हीं मे मिल जाएगा !
ख़ाली हाथ ही आया तू
ख़ाली हाथ ही जाएगा !

न कोई है तेरा
न कोई साथ जाएगा !
धन दौलत सोना चाँदी
यही छूट जाएगा !

जैसा कर्म करेगा जग मे
वैसा ही फल पाएगा !
केवल कर्मों की पोथी
तू साथ मे ले जाएगा !

मोह माया मे फँस कर तू
जीवन का मक़सद भूल गया !
संसार मे आते ही तू
इसी के रंग मे रंग गया !

स्वार्थ भरी इस दुनिया मे
तू भी स्वार्थी बन गया !
करके ओरों पर अत्याचार
तू भी अत्याचारी बन गया !

किस बात का अभिमान करे
निर्दोषों को मार कर
क्यो अपने भण्डार भरे !

क्यो भूल गया उस ईश्वर को
जिसने तुझे बनाया है !
मिट्टी की देह बनाकर
सासो का दीप जगाया है !

उसने तो पाठ प्रेम का समझाया !
तूने आ कर इस जीवन मे
पापों का ही भार कमाया !

अरे पगले यहाँ सब कुछ मिलेगा दुवारा !
पर यह जीवन नही मिलेगा दुवारा !

टिप्पणी :- हम अपने जीवन मे अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए जाने कितनों का मन दुखाते है अपनी झूठी खुशी के लिए जाने कितनों को रूलाते है अपने झूठे अभिमान मे हम भगवान को भी भूल जाते है हम सोचते है जो भी कर रहे है हम कर रहे है उस सृष्टि रचेता को भूल जाते है किन्तु सत्य यह है कि हम अपने जीवन मे जैसे कर्म करते है उसी प्रकार का फल पाते है




सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

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