Sunday, July 17, 2016

‪#‎तकब८‬ [ तस्वीर क्या बोले प्रतियोगिता #8 ]



‪#‎तकब८‬ [ तस्वीर क्या बोले प्रतियोगिता #8 ]
मित्रो लीजिये अगली प्रतियोगिता आपके सम्मुख है. नियम निम्नलिखित है 
१. दिए गए तीन चित्रों में सामंजय बना, कम से कम १० पंक्तियों की काव्य रचना शीर्षक सहित होनी अनिवार्य है [ हर प्रतियोगी को एक ही रचना लिखने की अनुमति है]. 
- यह हिन्दी को समर्पित मंच है तो हिन्दी के शब्दों का ही प्रयोग करिए जहाँ तक संभव हो. चयन में इसे महत्व दिया जाएगा.
[एक निवेदन- टाइपिंग के कारण शब्द गलत न पोस्ट हों यह ध्यान रखिये. अपनी रचना को पोस्ट करने से पहले एक दो बार अवश्य पढ़े]
२. रचना के अंत में कम से कम दो पंक्तियाँ लिखनी है जिसमे आपने रचना में उदृत भाव के विषय में सोच को स्थान देना है.
३. प्रतियोगिता में आपके भाव अपने और नए होने चाहिए.
४. प्रतियोगिता १५ जुलाई २०१६ की रात्रि को समाप्त होगी.
५. अन्य रचनाओं को पसंद कीजिये, कोई अन्य बात न लिखी जाए, हाँ कोई शंका/प्रश्न हो तो लिखिए जिसे समाधान होते ही हटा लीजियेगा.
६. आपकी रचित रचना को कहीं सांझा न कीजिये जब तक प्रतियोगिता समाप्त न हो और उसकी विद्धिवत घोषणा न हो एवं ब्लॉग में प्रकशित न हो.
विशेष : यह समूह सभी सदस्य हेतू है और जो निर्णायक दल के सदस्य है वे भी इस प्रतियोगिता में शामिल है हाँ वे अपनी रचना को नही चुन सकते लेकिन अन्य सदस्य चुन सकते है. सभी का चयन गोपनीय ही होगा जब तक एडमिन विजेता की घोषणा न कर ले.
निर्णायक मंडल के लिए :
1. अब एडमिन प्रतियोगिता से बाहर है, वे रचनाये लिख सकते है. लेकिन उन्हें चयन हेतु न शामिल किया जाए.
2. कृपया अशुद्धियों को नज़र अंदाज न किया जाए.


इस बार  की विजेता  है  सुश्री  किरण श्रीवास्तव 

नैनी ग्रोवर 
~चल उठ~

चल उठ सरपट भाग रे,
दिन चढ़ आया, जाग रे..

पंछी उड़े घोंसलों से,
देख कितने हौंसलों से,
संग संग पवन लहराते,
और अपने पंख फैलाते,
करने चले ये अपने काज रे..

दिन चढ़ आया, जाग रे..

मेहनत से मिलती हैं खुशियाँ,
मेहनत से ही चैन,
मेहनत का जो बहे पसीना,
हो नींद से भरपूर रैन,
मेहनत ही जीवन का साज़ रे..

दिन चढ़ आया, अब जाग रे..

मत रुक, के दिन है चलने का,
सूरज की ताप में, पलने का,
बैठ लेंगे, फुर्सत मिलेगी जब,
या कर इंतज़ार, शाम ढलने का,
बुझ जायेगी, मुश्किलों की आग रे...

चल उठ, सरपट भाग रे,
दिन चढ़ आया, जाग रे...!!


टिप्पणी:- जीवन चक्र मेहनत से ही चलता है, समय के साथ चलना आवश्यक है ।




Prerna Mittal 
~सर्वोत्तम क्या ?~

गोधन, गजधन, बाजिधन और रतन धन खान।
जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समान।।

तुलसीदासजी तो कह गए पर है बड़ी भारी दुविधा,
आज किसका महत्व कम और किसका है ज़्यादा ।
स्वास्थ्य, परिवार, ज्ञान, यश,सम्पत्ति या बुद्धिमत्ता,
इतना ही नहीं काफ़ी, बावला बनाती बहुत सत्ता।

कैसे कह दूँ कि ये कमतर और वो बेहतर !
आप ही बताओ ना कैसे और क्योंकर ?

परिवार, प्रेम को जो बताऊँ सर्वोत्तम,
बिना धन के कैसे करोगे पालन-पोषण ?
पुरुषार्थ करना ना है सम्भव, बिना स्वास्थ्य,
ज्ञान का साथ भी ज़रूरी, अगर पाना है लक्ष्य ।
करीयर और संपत्ति का चोली दामन का साथ,
सभी चीज़ें संग चलें लेकर हाथ में हाथ ।

अभिप्राय यही जुदा नहीं कोई भी किसी से,
संतोष धन का तात्पर्य यही है मेरे विचार से ।
आवश्यक है सभी के बीच सामंजस्य बिठाना,
कमी और अति के बीच उचित संतुलन बनाना ।

ईश्वर भक्ति संग पुरुषार्थ करोगे,
नहीं कभी फिर असफल होगे ।
सारे स्वप्न तुम्हारे होंगे,
ख़ुशियों के पल सुहाने होंगे ।
योग, स्वास्थ्य और धन का संगम
ऊँचा ओहदा, प्यारे मित्रगण ।

टिप्पणी: ईश्वर रचित सभी जीवधारियो में मानव ही सर्वाधिक बुद्धिमान और गुणवान प्राणी है ।ईश्वर ने मनुष्य को इस कर्मक्षेत्र में भेजा है । यहाँ पर वह स्वयं अपने जीवन की दिशा निर्धारित करता है परंतु समाज में रहते हुए उसे सभी कर्तव्यों को पूरा करने के लिए सभी चीज़ों के बीच संतुलन बनाना आवश्यक है ।




Kiran Srivastava
 "उडान"
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ये भोर हमें सिखलाती है
उर्जा से पूर्ण बनाती है,
सोए से जग जाओ तुम
उडनें की जुगत लगाओ तुम,

बहु वृद्धि चुनौती जीवन की
कंटक से भरा ये जीवन है,
कुछ आनी है कुछ जानी है
कुछ करके भी दिखलानी है,
भीड भरी इस दुनियां में
अपनी पहचान बनानी है,
सब पाना है जब जीवन में
कुछ खोना भी पड जाता है...!

नीड छोडकर पक्षी भी
दर-दर दानें को भटकता है,
पर शाम ढले तो वापस वो
अपने कोटर में आता है ।

हे मनुज उडान कितना भी भर
पर नाता रहे जमीन से,
ये भान रहे तुमको इतना
दौलत -शोहरत पाओ जितना,
अपने तो अपने होते हैं
उनको ना कभी भुलाना तुम,
मात-पिता बिसराना ना
उनको भी गले लगाना तुम...!!!

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टिप्पणी-
आज का दौर आगे बढनें का,शीर्ष को पानें का है । उपलब्धियों को हासिल करनें के लिए जीवन में बहुत से समझौते करने पडतें है । पर सपनों के पीछे इतना ना भागे की अपने पीछे छूट जाए ।




गोपेश दशोरा
~ जीवन की राह ~
बचपन बीता आई जवानी,
बदल गई जीवन की कहानी,
उड़ते थे उन्मुक्त गगन में,
किसी चीज की फिक्र नहीं।
जो मन चाहा वो सब पाया,
कहीं किसी की रोक नहीं।
स्कूल-काॅलेज अब खत्म हुआ,
आजादी भी खत्म हुई।
जिम्मेदारी खड़ी सामने,
आखिर उम्र जो बड़ी हुई।
जो भी मिलता है कभी कहीं,
बस ये ही पूछा करता है,
क्या करते हो? क्या करना है?
क्या घर बैठ ही जीना है?
घर वाले भी अब कहते है,
जाओं बेटा कुछ काम करो।
यहाँ काम जो नहीं मिले,
तो दूर देश प्रस्थान करो।
परिवार चुने या, अपना कल,
समझ नहीं कुछ आता है।
अब आ पहूंचे चैराहे पर।
किसी एक राह तो जाना है।
सच करने है मन के सपने,
बस साथ रहे मेरे अपने।
तो हर मंजिल पा जाएंगे।
जीवन को सफल बनाएंगे।
परिवार रहे बस सदा साथ,
मित्रों का हो हाथों में हाथ।
तब किसी बात की फिक्र नहीं,
चाहे कितनी गहरी हो रात।

टिप्पणीः बचपन की उन्मुक्तता के बाद जब जिम्मेदारियों का आगमन होता है तो कुछ समझ नहीं आता कि परिवार चुने, नौकरी चुने या कुछ और।




कुसुम शर्मा
~मुश्किलों को हटायें जा क़दम तू बढ़ाये जा !~
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मुश्किलों को हटायें जा
क़दम तू बढ़ाये जा
हौसला बुलन्द कर
हिम्मत अपने अन्दर भर
क़दम तू बढ़ाये जा
अपने लक्ष्य को पाये जा
चुनौतियाँ स्वीकार कर
बाधाओं को पार कर
विश्वास मन मे जगाये जा
क़दम अपने बढ़ाये जा
खुद पर यकिन कर
मंज़िलों को पार कर
पानी के वेग सा
तू हर घड़ी बढ़ता जा
चुनौतियों से लड़ता जा
क़दम अपना बढ़ता जा
मुश्किलों को हटाता जा

टिप्पणी :- अपने लक्ष्य को पाने के लिए जिस व्यक्ति के मन मे विश्वास हो , चुनौतियों का सामना करने कि हिम्मत हो और मंज़िल तक पहुँचने की ललक हो , खुद पर यकिन हो , तो वो अपने लक्ष्य तक पहुँच ही जाता है!




Madan Mohan Thapliyal शैल 
~मानव~


त्रिकाल, त्रिगुण, औ इस भुवन की, अपूर्व कृति तू,
दुःख, सन्ताप, क्लेश विश्व के, सबका निवारक भी तू.

शासन- प्रशासन सब तुझ में, सबका नियंत्रक भी तू,
प्रेम गाथा जन्मी तुझी में, सखा बन्धु- बांधव भी तू.

उत्तरार्ध भी तू, पूर्वार्ध भी तू, घर परिवार का वैभव भी तू,
धन, स्वास्थ्य यश, विवेक तेरे निमित्त, सबका पोषक है तू.

हर चौराहे से गुज़रते कई रास्ते, उनका निर्माण करता है तू,
कभी उलझता सरकारी तंत्र से, कभी सबका समाधान तू.

कभी विवेक से अपने, कर्तव्य परायण होकर भविष्य तय करता है तू,
अपने ही प्रारब्ध से खेलता निराकार का साकार प्रतिरूप तू.

रचना उसकी निर्माण तेरा, नील गगन सा विस्तार तू,
उड़ता जा स्वछंद परिंदों की मानिंद, प्रभु की अद्भुत रचना है तू.

चलना ही कर्म तेरा, रुकना नहीं, खुद की पहचान तू,
सारा विश्व तेरे लिए बना है, इसकी सच्ची पहचान तू.

इतिहास को बनाता बिगाड़ता कभी भौंचक्का रह जाता है तू,
कभी अबोध बालक सा, अपनी कृति से अंजान रहता है तू.

धरती तो क्या, व्योम तक पहुँचा है तू,
तेरा गुरूर मोह के वश, इसलिए भगवान नहीं बन पाया तू.

टिप्पणी - मानव ईश्वर की सबसे महत्वपूर्ण और श्रेष्ठ रचना है. मनुष्य ने ही सबका परिचय कराया यहाँ तक कि ईश्वर का भी, लेकिन मानव को अपनी सीमा का ध्यान नहीं रहा. गुरूर के कारण मानव स्वयंभू बन बैठा. हमें अपनी सीमा में रहकर अपना और विश्व का कल्याण करना चाहिए.




किरण आर्य 
*******दौड़********

मन की उड़ान
महत्वाकांक्षी दौड़
जिसका कोई ओर न छोर
स्वप्नों से यथार्थ तक
साँसों संग जीवन अनुबंध
जैसे मृग में निहित कस्तूरी गंध
भोर में पक्षियों के
कलरव संग
उड़ता पंछियों सा
चहचाहता उन्मुक्त मन
गोधुली के साथ
पूरे अधूरे से सपने
लौट पाते है पनाह
दिल के कोटर में
दौड़ एक अंधी सी
जीवन-मरण के फेर में बंधी
कर्मो को गुनती बुनती सी
छूटा बचपन खेल खिलोने
रह गए खाली दिल के कोने
निज में निहित जीवन सारा
पानी जैसे सागर का खारा
गौण हुए सब रिश्ते नाते
भावुकता गई है बट्टे खाते
दोस्त यार और घर परिवार
सब छूटने लगे है अब पीछे
आगे बढ़ने की जो चाह बावरी
हाथ पकड़कर हरपल खीचे
अहम है बस प्राप्ति
उम्मीदों से भरी उड़ान की
दौड़ता मन और जीवन
अंधाधुंध निरंतर हर क्षण
वैभव के आगे है झुकते
स्वास्थ्य बुद्धिमत्ता जीवन के रिश्ते
दौड़ है अंधी
सघन गलियारे
फिरे मन जीव मारे-मारे
गर लगन है सच्ची
कोशिश है जारी
कर्मठ मन के आगे
नाउम्मीदी है हारी
पथ है दुर्गम
थके है कदम
उड़ने को है आतुर
कोमल से पंख
संग हो अपने, तेरे जो जीव
हौसले सदा रहे सजीव
भर तू उड़ान
आस को थाम
प्रयासों में डाल दे जान
सपनों को अपने तू
आस और मेहनत से सींच
देखना होगी एक दिन निश्चित,
मन मेरे हाँ तेरी ही जीत..............

टिपण्णी:- महत्वकांक्षाओं के लिए मनुष्य दौड़ रहा है निरंतर.......निज में निहित उसकी कोशिशें और एक अंधी दौड़ जिसमे पीछे छूटा सब कुछ.............सुबह से लेकर शाम तक......जीवन से मृत्यु तक दौड़ता जीवन और जीव......




प्रभा मित्तल
~~~एक लक्ष्य~~~
~~~~~~~~~~~~~

बीती रैन अब भोर हुई
नयन खोल कर देख जरा
थाली में कुमकुम लेकर
नव प्रभात का स्वागत करने
प्राची से उषा आई है।
दूर क्षितिज पर सूरज उग आया।
पंछी भी उड़ चले गगन में,
जीवन को गति देने का,
अब तेरा भी अवसर आया।

जीवन-साधना-पथ पर
साधक बनकर
पग आगे रख,
उत्थान-पतन के
बीच से निकल -निकल कर
नित नूतन अनुभव कर।

साधना स्वास्थ्य से
स्वास्थ्य साधन से
साधन अर्थ से
अर्थ के लिए कर्म-श्रम,
बुद्धि-विवेक-चातुर्य जरूरी,
ये सब एक ही
थैली के चट्टे-बट्टे हैं
जीने के तौर- तरीके हैं।

आदि काल से मानव का
बस यही प्रयत्न रहा है
एक लक्ष्य निर्धारित कर
'अर्थ'के पीछे भाग रहा है।
संसार-चक्र से बंधकर
नेह-पगा,मोह-माया में फँसकर
संगी-साथी औ परिजनों के
सुख-सपनों को साध रहा है।


टिप्पणी: मनुष्य जीवन यापन के लिए अपने हर सुख-स्वप्न को पूरा करने का हर संभव प्रयत्न करता है


सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

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