Tuesday, June 20, 2017

जून तस्वीर #तकब जून





नमस्कार मित्रों 
पुन: आपके समक्ष एक चित्र रख रहा हूँ. नियम व् शर्ते उसी रूप में होंगी, चयन प्रक्रिया भी उसी रूप में रहेगी. निर्णायक मंडल की दृष्टी से श्रेष्ठ रचना को सम्मान पत्र से पुरस्कृत किया जाएगा.
निम्नलिखित बातो को अवश्य पढ़िए.
१. अपने भावों को कम से कम ८ - १० पंक्तियों की काव्य रचना शीर्षक सहित लिखिए. एक सदस्य एक ही रचना लिख सकता है. 
२. यह हिन्दी को समर्पित मंच है तो हिन्दी के शब्दों का हीप्रयोग करिए जहाँ तक संभव हो. चयन में इसे महत्व दिया जाएगा.
[एक निवेदन- टाइपिंग के कारण शब्द गलत न पोस्ट हों यह ध्यान रखिये. अपनी रचना को पोस्ट करने से पहले एक दो बार अवश्य पढ़े]
३. रचना के अंत में कम से कम दो पंक्तियाँ लिखनी है जिसमे आपने रचना में उदृत भाव के विषय में सोच को स्थान देना है. 
४. आपके भाव अपने और नए होने चाहिए. [ पुरानी रचनाओं को शामिल न कीजिये ]
५. इस चित्र पर भाव लिखने की अंतिम तिथि १५ जून, २०१७ है.
६. अन्य रचनाओं को पसंद कीजिये, कोई अन्य बात न लिखी जाए, हाँ कोई शंका/प्रश्न हो तो लिखिए जिसे समाधान होते ही हटा लीजियेगा. साथ ही कोई भी ऐसी बात न लिखे जिससे निर्णय प्रभावित हो.
७. आपकी रचित रचना को कहीं सांझा न कीजिये जब तक समाप्ति की विद्धिवत घोषणा न हो तथा ब्लॉग में प्रकशित न हो.
८. विशेष : यह समूह सभी सदस्य हेतू है और निर्णायक दल के सदस्य भी एक सदस्य की भांति अपनी रचनाये लिखते रहेंगे. हाँ अब उनकी रचनाये केवल प्रोत्साहन हेतू ही होंगी.
धन्यवाद !

 विजेता रोहिणी शैलन्द्र नेगी



प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल  - प्रोत्साहन हेतू एक रचना 
~एक प्रश्न ~


लिखने का शौक 
आधुनिकता की अंधी दौड़ में 
कलम को छोड़ 
कम्प्युटर में जुड़ गया 
शब्दों का ज्ञान
शब्दों की खोज अब 
गूगल में सिमट गई 
सच कहूं - शब्द अब 
अक्ल के सूखे खलिहान में 
नकल से उभर कर 
साहित्य की शक्ल में 
दखल देने लगे है 
शब्द भाव अशुद्धता की बेड़ी में 
छ्टपटहाट महसूस करते है
तथाकथित रचनाकारों ने
भ्रम की पट्टी से
अंधे क़ानून की तरह
स्वयं को ताज पहना कर
शहंशाह घोषित कर दिया है.
‘प्रतिबिम्ब’ का 
बस एक प्रश्न 
क्या हमारी हिन्दी 
सुरक्षित है इस नेतृत्व में ?


कलम और तकनीक


छूटी कलम जो हाथों से, 
कागज़ बेकार हो गये,
मोबाइल और लैपटॉप ही,
खिलती बहार हो गये....

दूर हुए हम बागों खलिहानों से,
कम्प्यूटर जी ने ये हाल किया,
बैठ एयरकंडिशन में अब तो,
लेते हैं बस तस्वीरों को मज़ा, 
पूछते थे पहले सवाल गुरुओं से,
अब गुरु गूगल महाराज हो गये...

वो बैठ पेड़ों की ठंडी छावं में,
लिखना व्यथा आस पास के समाज की,
अब सोशल मीडिया पे उड़ेलते हैं,
भड़ास अपने दिल में होती खाज की,
हर कोई बना दूरदर्शी, या लाचार हो गये ??

छूटी कलम जो हाथों से,
कागज़ बेकार हो गये....!!

नैनी ग्रोवर

टिप्पणी...
आजकल के दौर में कलम ओर कागज़ से रिश्ता तो टूट ही चुका .. पहले किसी से कुछ पूछते थे तो इसी बहाने मिलना और बात करना एक दूसरे का हाल जानना भी हो जाता था... अब तो गूगल खोलो बस... अब ये तकनीकी युग किस और ले जाएगा सोचने वाली बात है ।



कुसुम शर्मा 
जाने कहाँ गये वो दिन 
-----------------
जाने कहाँ गये वो दिन जब क़लम से लिखा करते थे ! 

ले कर स्याही बस्ते में स्कूल में जाया करते थे !
जब लेख नहीं होता था सुन्दर तो गुरू लगाते डाँट !
श्रुत्रलेख ले कर शब्दों की देते नित्य सीख !
अब कम्प्यूटर का नया ज़माना 
काग़ज़ क़लम को किसने जाना 
गुगल है यहाँ सबका मामा 
हर बात का ज्ञान यह रखता 
हर बच्चे के दिल में बसता 
नहीं कोई प्रश्न जब आता 
एक मिनट में हल ये करता 
पहले के छूटे संस्कार 
गुरू की नहीं डाँट फटकार 
न कोई लेख की चिन्ता न कोई ग़लती का डर !
अब लिखावट नहीं रही सुन्दर , मात्राओं में नहीं कोई अंतर !
छूटा गुरू शिष्य का प्यार न अादर रहा न सत्कार ! 
छोटा हो ,बड़ा हो , बूढा हो या कोई जवान , 
सब की बस गई इसमें जान 
काग़ज़ क़लम का रहा न काम !!

टिप्पणी :- आज के युग में कम्प्यूटर का ही बोलबाला है ! बच्चों को स्कूल में शिक्षा कम्प्यूटर से ही दी जाती है --पहले बच्चे हमेशा गृहकार्य लिखकर कोपी में किया करते थे अब कम्प्यूटर में करते है जिसके कारण उनकी लिखावट बिगड़ गई है न ही आज कल किसी भी चीज़ को सिखने के लिए ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती --गुगल में हर प्रश्न के उत्तर मिल जाते है 
पहले गुरू से डाँट पड़ने का डर रहता था गुरू द्वारा दिये गये कार्य को याद करके और लिख कर जाते थे ताकि गर वह श्रुतलेख भी ले तो सही लिख सके ---आजकल के बच्चों को श्रुतलेख का कोई ज्ञान नहीं है वह अपना कार्य कम्प्यूटर पर करते है और दी गई अवधी के अन्दर जमा करवा देते है जिसके कारण केवल बाहरी ज्ञान की प्राप्त कर पाते है अन्दरूनी नहीं ! 
आज कल स्कूल हो कोलेज हो या कार्यालय सभी जगह कम्प्यूटर का प्रयोग हो रहा है --बच्चा हो जवान हो या बूढ़ा हो सभी को इसकी आदत लग चुकी है ---सच्चाई तो यह है कि हम सब इसके आदी हो चुके है !!




किरण आर्य प्रोत्साहन हेतु.........
कर अंगीकार 


परिवर्तन की है हवा चली 
नई टेक्निक्स 
है नया जमाना 
खो गया सब 
जो हुआ पुराना 
कलम जो कहलाती थी ताक़त 
थाम उँगलियाँ उसे 
उकेरती थी शब्द 
शब्द जो मोती से थे 
दमकते 
पन्नो पर थे इतिहास 
वो रचते 
डिजिटल हुआ है आज जमाना 
कंप्यूटर लेपटोप है 
संगी साथी 
कीबोर्ड पर थिरके है उँगलियाँ 
अब कंप्यूटर की भाषा 
है सबको भाती
भावों एहसास है 
वहीँ पुराने 
पर लोग हुए 
डिजिटल युग संग सयाने 
नियम जीवन का है परिवर्तन 
टेक्निक्स संग मन करे है नर्तन .........किरण आर्य 

टिप्पणी.........जब परिवर्तन जीवन का नियम है और समय की मांग भी तो नए को क्यूँ न हंसकर अंगीकार करे..............



डॉली अग्रवाल 

नये युग के कर्णधार

वक्त के पहिये पे

कागज कलम का मोल नही 
कागज की बिसात पे अक्षर मोहरे हो गए 
आज के कवि शब्दो की दुकान हो गए 
पल में एक दूसरे के रूबरू हो गए 
आधुनिकता की दौड़ में हम लाचार हो गए 
देखो हम भी 21 वी सदी के होनहार हो गए 
दिखावे के मुखोटे लगा 
हम कम्प्यूटर के दास हो गए 
अक्ल को बक्से में बंद कर 
सवाल सारे बेईमान हो गए 
देखो हम नए युग के कर्णधार हो गए !! 

नये परिवेश , नये आयाम तरक्की देते है , पर एक बड़ी कीमत हम खुद को बदल कर चुकाते है !



किरण श्रीवास्तव

 'तकनीकी ओर हम'
---------------------------------


जब से लैपटॉप - कम्प्युटर आया
सबके मन को खूब सुहाया
कागज कलम न अब मन भाये
बटन पे अंगुली थिरकी जाये...!

मिलना-जुलना बंद हुआ
वार्तालाप का अंत हुआ,
अंजाने अब खूब सुहाये
लाइक तारीफें मन को भाये...!

गुरु मिलन अब रास न आये
हर प्रश्नों पर शंका छाये,
गुगलबाबा ज्ञान लुटावे
हर समाधान वही समझावे...!

माना की जमाना अच्छा है
पर संस्कार अब कच्चा है
सुविधाये अम्बार हो गई
इंसानियत अब बीमार हो गई....!!!!

टिप्पणी-देश की प्रगति में नित नये-नये अविष्कार हो रहें है,सुविधाये बढ़ती जा रही है और हम उसके गुलाम होते जा रहें हैं। सुविधाओं का लाभ एक हद तक तो ठीक है लेकिन हमारी संस्कृति परम्परा संस्कार खो रही है ये बड़े दुःख की बात है।




Ajai Agarwal 

''अंतिम अवस्था में कलम दवात ''
=====================


भोजपत्र की भृगु संहिता ,
ताम्रपत्र अर शिलालेख 
बीते युग के हैं शुभंकर 
तस्वीरों में हुए कैद। 
तख्ती की लिपाई सुखाई 
सरकंडे ,बांस की कलम बनाई 
घिस-घिस कोयला स्याही बनाई 
और कलम की कत् लगाई। 
पेन्सिल इसी बीच में आयी 
भली लगी रबर , गलती मिटाई 
होल्डर निब और चेलपार्क की स्याही 
कलम ,कोयले की हुई विदाई। 
फिर फाउंटेन पेन ने किया धमाल 
रंग बिरंगी स्याही की चली बयार 
कुछ छूटा कुछ अपनाया 
सभ्यता को यही नियम भाया। 
जब जाना था चंदा पे ,
अंतरिक्ष में गुरुत्वाकर्षण शून्य 
स्याही का बाहर होता रिसाव
बालपैन प्रचलन में आया। 
देखो ! फिर तो कोर्ट कचहरी -
परीक्षा ,बैंक अर कार्यालय 
बालपेन का जलवा छाया 
सुलेख ,हुआ अब धाराशाही 
मोती जैसे अक्षर वाली 
लिखाई से व्यक्तित्व पढ़ने वाली 
विद्या देखो हुई पराई ;
और सभ्य हुये हम आज!
छूटे कागज कलम दवात ,
बालपैन पेन्सिल नहीं लुभाते 
अब तो, की बोर्ड का मौसम भाई 
टपटप होती यहां लिखाई 
एक सा ही सुलेख है भाई 
घसीट अब कोई नहीं मारता 
सुलेख में नंबर नहीं हैं कटते 
बुद्धि तेज और तेज हो गयी 
लेखन अब कमजोर हो गया 
तख्ती वाली आत्मनिर्भरता ,
कलम ,निब की कत् बनाना 
पेन्सिल छीलने की कुशलता 
कागज न फ़टे -----
रबर पे संयमित दबाव बनाना !
अब तो सब यांत्रिक ही है ,
अक्षर अब बोलते नहीं हैं 
अहसासों को तोलते नहीं हैं
डिजिटल ; कलयुग का उपहार 
डिजिटल ; कलयुग का व्यवहार
कम नहीं हुआ पर देखो 
पुस्तकों का व्यापार 
तेरेमेरे जैसे ,आज भी करते 
पुस्तक से उतना ही प्यार। .....
मेरी कॉपी में आज भी 
नित होती अक्षरों की बूंदा बांदी
पुस्तक नित नई 
मेरे रेक की शोभा बढाती। 
नेट में है संभावना अपार 
बच्चे करते इससे प्यार 
मुझको भी है इससे प्यार 
पर ?
पाठकीय सुख नहीं है इसमें 
पृष्ठ-स्मृति हेतु मोरपंख को 
पुस्तक चिन्ह बना के रखना 
देने को किसी प्रिय को 
फूल पन्नों के बीच सुखाना 
ताज़ी मृत तितली के पर 
सीधे कर -
पुस्तक में रख -
विद्यामाता मुझको आ -कहना 
अब सपनों की ही बातें हैं 
मुस्कानों की ही बातें हैं 
राह विकास की मुश्किल 
और विकास ; मन की चाहत 
संवेदना -भाव -प्रेम 
ये विकास के नहीं हैं साथी। 
एक ऊँगली की टपटप पे 
पूरा विश्व समाहित है अब 
पर कुछ मेरे जैसे भी 
लिखना -पुस्तक पढ़ना 
सांस लेने सा आवश्यक जिनको 
सांस लेने सा आवश्यक जिनको --आभा -
--------- नेट के पाठकीय सुख के अधूरेपन को आज भी किताबें ही पूरा करती हैं। विश्व डिजिटल हो गया पर पुस्तकों का व्यापार बढ़ा है और मेरे जैसे लोगों की भी बड़ी संख्या है जिनके लिए लिखना ऐसे ही है जैसे मछली का सांस लेने के लिए निश्चित अंतराल में समुद्र की सतह पे आना।-एक कोशिश -




गोपेश दशोरा 
शीर्षकः कलम की व्यथा


आज मैं खामोश हूं,
जब उंगलियां चलने लगी।

देखकर यह उन्नति,
मेरी आत्मा जलने लगी।
मुझे स्याही में डूबोया जाता था,
अल्फाज लिखे तब जाते थे।
अन्दाज अलग था लिखने का,
कुछ तो, उससे पहचाने जाते थे।
पत्र लिखे जब जाते थे,
दिल कागज पे उकेरे जाते थे।
पढ़ते आंखे ना थकती थी,
खत में चित्र उभर के आते थे।
एक दौर था मेरा ऐसा भी,
जब मेरी तूती बजती थी।
मन्दिर में रक्खा जाता था,
मेरी भी पूजा होती थी।
कुछ लोग तो मुझको अपने संग,
तलवार की माफिक रखते थे।
मेरे इस तेवर के आगे,
राजा, नेता तक डरते थे।
पर खत्म हुआ वह दौर तो अब,
अब सब तन्त्रों की माया है।
किसने लिखा और कहां लिखा,
नहीं कोई समझ ही पाया है।
इस देस लिखों या उस देस लिखो,
सब एक ही जैसा दिखता है।
शब्द भले ही भारी हो,
अपनापन तनिक ना दिखता है।
गोपेश दशोरा
टिप्पणीः एक समय था कि कलम की ताकत की काफी अहमियत थी। चाहे पत्रकार हो या साहित्यकार उनकी कलम गजब ढाया करती थी। परन्तु आज फेसबुक और व्हाट्सअप पर आने वाले अच्छे विचारों, लेखों और कविताओं को सीधा काॅपी&पेस्ट कर दिया जाता है। इससे ना केवल लिखने वाले का अपमान होता है वरन उस कलम का भी अपमान होता है जिससे वह रचना सृजित हुई।




रोहिणी शैलेन्द्र नेगी 
😊 
"तकनीकी ज्ञान"
***********
क्यों तकनीकी ज्ञान को हमने,
सर्वोपरि बना दिया...........?
हस्त-लेखन की क्रिया को,
अपने ही हाथों दफ़ना दिया..?

प्रगति के ही नाम पर शायद,
आलस्य को अपना लिया,
'नयी तकनीक' का नाम देकर,
इसको अंगीकार किया ।

तकनीकि विज्ञान-ज्ञान के, 
चक्कर में हम पड़े रहे,
उँगलियों के पोरों से निकली,
ऊर्जा को हम भूल गए ।

क़लम रक्त-संचालन करके,
अपना सहयोग जताती है,
जबकि तकनीकी-क्रिया बस,
साथ में वक़्त निभाती है ।

चंद चहलक़दमी करके हम,
उँगलियों को सरकाते हैं,
और कहते हैं चीज़ ग़ज़ब है,
फूले नहीं समाते हैं ।

यही नयी तकनीक हमें कुछ, 
ऐसा पाठ पढ़ाती है,
रोज़-रोज़ नयी सीख हमें, 
बस किश्तों में दे जाती है ।

मैं विरुद्ध नहीं हूँ......! 
नयी तकनीक, सिद्धांत,
विचारों के............!
किंतु डर है यही......! 
न रह जाएँ वंचित,
संस्कारों से...........!



प्रभा मित्तल ~~~~~~~~
~~ कलम और कम्प्यूटर ~~


कलम, 
मेरे छुटपन की सहेली
नन्हीं अंगुलियों में जैसे पहेली
बाबा से जबरन ले, काग़ज पर
मैं करती रहती थी अठखेली ।

बचपन ने कुछ होश संभाला
धीरे धीरे लिखना आया
स्याही कलम दवात संग
था अब रिश्ता गहराया।

कलम,
मन की बातें बोलती 
कभी अक्षरों को तोलती
मेरी सोच पर अड़ जाती 
हठ करती सी भिड़ जाती।

सुन्दर लेख अनूठा लेखन
स्कूल कॉलेज में हो अध्ययन
सबके संग थिरकती रहती
छात्र हों या हों शिक्षकगण।

बही विज्ञान की नई धारा
बदलने लगा जमाना सारा
कम्प्यूटर का युग आया
कलम छोड़ ये आगे धाया।

सारा ज्ञान किताबों से उठकर
कम्प्यूटर में जा पहुंचा।
गूगल सर अब गुरु बन गए
फैला विश्व में उनका चर्चा।

डायरी नोटबुक सूने पड़ गए
ख़त औ क़िताबत ईमेल हो गए
फ़ाइलों में कारोबार जुड़ गए
काग़ज कलम फेल हो गए।

वो दिन भी क्या दिन थे -
जब चिट्ठी लिखते अपनों को,
खुश होकर मुसकाते थे,
कभी यादों में बहकर पढ़ते
अक्षर आँसू में धुल जाते थे
वो भाव कहाँ अब टाइपिंग में 
जो कलम के संग सुहाते थे।

लेख-लेख की पहचान खो गई
अपना भी बेगाना सा हो गया
यौं अहसासों की शाम हो गई 
भावों का उल्लास मिट गया।

लेखनी चुप बैठी कोने में
देख रही थी बहुत दिनों से,
संगणक की जय-जयकार 
और अपना होता बहिष्कार।

सुलेखन पीछे छोड़ 
टंकण ने थी धाक जमाई
ये भी सच ही है -
'बकरे की माँ ने आखिर
है कब तक खैर मनाई।'

एक दिन सर्वर डाउन हो गया
वायरस ने फन फैलाया था।
डेटा भी सारा उड़ गया
विष से नीला पड़ गया।

जब तकनीकें सारी हार गईं
तब अस्पताल में दाख़िलकर
संगणक को जीवनदान मिला
और मुझको भी ये ज्ञान मिला।

'अपना हाथ जगन्नाथ' -
कम्प्यूटर से जुड़े रहो, पर
कागज कलम सदा के साथी
लिखने का अभ्यास न छोड़ो।
अपना लेखन अपनी पूँजी
हस्त-लिपि में भी जोड़ो।

- प्रभा मित्तल

(कोई भी नई तकनीक अपनानी बुरी नहीं ,लेकिन उसके ग़ुलाम नहीं होना चाहिए। कम्प्यूटर बेहद उपयोगी है पर अपनी लेखनी भी कुछ कम नहीं।ग्रंथों की अगर हस्तलिखित पांडुलिपियाँ न होंती तो हम आज उन्हें कहाँ से पढ़ पाते।अतः जहाँ कम्प्यूटर काम नहीं कर पाता वहाँ कलम जीत जाती है।)



Prerna Mittal 
नींव 
****
देखो मग्न है मनुष्य, अपने आभासी जग में,

चूर होकर बैठा, तकनीकी प्रगति के मद में ।
विस्मृत किए कि होती न लेखनी यदि,
असाध्य हो जाता, करना इतनी उन्नति।

नीचे देखना भूल जाता है, चढ़ जाता जब ऊपर,
अचंभा नहीं, चूँकि नर जन्मा, ऐसी प्रकृति पाकर।

प्यूपे से अभी जन्मी हो, जैसे एक सुंदर तितली,
उसी तरह क़लम ने, विश्व की काया पलटी।
क़लम ही बुनियाद वह, जिस पर सुरक्षित बैठकर, पहुँचा इन्सान आज तरक़्क़ी की चरम सीमा पर।

पहली सीढ़ी है आधार, अंतिम तक पहुँचने का,
आरम्भ, एकमात्र विकल्प, अंजाम तक पहुँचने का।
भव्य इमारत खड़ी, नींव की ईंट पर ही होती है,
आधारशिला सुदृढ़ हो तो, विकास में गति होती है।

क़लम से लिखना सीखा तो इतिहास बनाया,
पढ़ा-समझा, पीढ़ियों ने तो आगे क़दम बढ़ाया, बढ़ते-बढ़ते आज, क्या कुछ न कर दिखाया,
छोटी सी मुट्ठी में है, समस्त संसार समाया।

टिप्पणी: क़लम का बड़ा आकार हमें यह सोचने पर बाध्य करता है कि चाहे मनुष्य कितनी भी तकनीकी उन्नति क्यों न कर ले, यहाँ तक पहुँचने में क़लम के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। वही हर ज्ञान की नींव है।



अलका गुप्ता 
कलम सवार
^^^^^^^^^^
थे सिपाही !

कलम के जो...
आज...उस पर...
सवार हो गए !

हो रहा गायब...
हुनर काग़ज़ पर...
कलम का...
साथ सच्चा !

इंटरनेट फोन...
कम्प्यूटर...
लेपटाप में लेखनी के
अनु-गढ़न भाव वह...
अमर-शब्द खो रहे !!



लेखन के क्षेत्र में सिपाही का शस्त्र जो कलम और कागज हुआ करती थी उसका अस्तित्व आज इंटरनेट के काल में सिकुड़ रहा है।


सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/