Wednesday, August 2, 2017

जुलाई तस्वीर #तकब जुलाई





नमस्कार मित्रों 
पुन: आपके समक्ष एक चित्र रख रहा हूँ. नियम व् शर्ते उसी रूप में होंगी, चयन प्रक्रिया भी उसी रूप में रहेगी. निर्णायक मंडल की दृष्टी से श्रेष्ठ रचना को सम्मान पत्र से पुरस्कृत किया जाएगा.
निम्नलिखित बातो को अवश्य पढ़िए.
१. अपने भावों को कम से कम ८ - १० पंक्तियों की काव्य रचना शीर्षक सहित लिखिए. एक सदस्य एक ही रचना लिख सकता है. 
२. यह हिन्दी को समर्पित मंच है तो हिन्दी के शब्दों का हीप्रयोग करिए जहाँ तक संभव हो. चयन में इसे महत्व दिया जाएगा.
[एक निवेदन- टाइपिंग के कारण शब्द गलत न पोस्ट हों यह ध्यान रखिये. अपनी रचना को पोस्ट करने से पहले एक दो बार अवश्य पढ़े]
३. रचना के अंत में कम से कम दो पंक्तियाँ लिखनी है जिसमे आपने रचना में उदृत भाव के विषय में सोच को स्थान देना है. 
४. आपके भाव अपने और नए होने चाहिए. [ पुरानी रचनाओं को शामिल न कीजिये ]
५. इस चित्र पर भाव लिखने की अंतिम तिथि २१ जुलाई, २०१७ है.
६. अन्य रचनाओं को पसंद कीजिये, कोई अन्य बात न लिखी जाए, हाँ कोई शंका/प्रश्न हो तो लिखिए जिसे समाधान होते ही हटा लीजियेगा. साथ ही कोई भी ऐसी बात न लिखे जिससे निर्णय प्रभावित हो.
७. आपकी रचित रचना को कहीं सांझा न कीजिये जब तक समाप्ति की विद्धिवत घोषणा न हो तथा ब्लॉग में प्रकशित न हो.
८. विशेष : यह समूह सभी सदस्य हेतू है और निर्णायक दल के सदस्य भी एक सदस्य की भांति अपनी रचनाये लिखते रहेंगे. हाँ अब उनकी रचनाये केवल प्रोत्साहन हेतू ही होंगी.
धन्यवाद !

विजेता सुश्री ब्रह्माणी वीणा 


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल केवल प्रोत्साहन हेतू 

नियति ...



समय की 
उदासी लिए
किसी 
अनजान सड़क से 
गुजरते हुए 
तेरा मिलना 
समय का ही 
उपहार था 

अंसख्य भावों ने
तेरे ही दिए हए 
शब्दों से रूबरू होकर 
एक राह थाम ली 
साथ चलने का 
हौसला लिए 
वो बचपन सी नादानी 
और शरारत लिए 
निस्वार्थ मन 
तेरा हाथ थामे 
बिना पते की मंजिल 
की ओर 
कब चल दिया
आभास ही नही हुआ 

न आते जाते मौसम 
न ऊँची नीची सड़के 
न कोई निगाह 
न कोई शोर ही 
हमारे चलते हुए 
कदमो को रोक पाया 
कुछ तूफ़ान आये जरुर 
लेकिन बिछड़ कर भी 
मिल ही गए हाथ 
और कदम चले साथ 

लेकिन नियति 
उस बचपने से गुजार कर 
नई राह पर ले आई है 
टूटता स्वपन बिखर कर 
हमारे बीच की दूरी को 
आर पार कर गया 
शायद मुड़कर देखना 
अब बेईमानी होगा 
तुम्हारी इच्छा 
मेरी कई इच्छाओ पर 
भरी पड़ गई 
नियति को अपनाकर 
हारकर 
कदम बढ़ा लिए है 
जो मेरा नही 
उसपर 
मेरा अधिकार भी कहाँ 


टिप्पणी जीवन में चलते जाना नियति को अंगीकार करना ही है. पास दूर अपनी भावनाओ के साथ नियति का परिणाम है .. कुछ ख्याल जो चित्र पर सहजता से उभर आये ....


रोहिणी शैलेन्द्र नेगी "ग़लतफ़हमी"
*********
स्पर्श तेरे हाथों का,

जो पहले कभी,
मरहम का काम, 
किया करता था...!!

मासूमियत में लिपटा,
चेहरे का हर भाव,
आँखों से इज़हार-ए-बयाँ, 
किया करता था...!!

आज यौवन की, 
चकाचौंध ने उसे,
किस कगार पर लाकर, 
खड़ा कर दिया...??

कि....................
मैं भी वही, तू भी वही,
पर...................
दुनिया-वालों की निगाहें,
पीछा छोड़ने का नाम ही नहीं लेती ।

दिल जो तेरी, 
बातों को,
होंठों पर आने से पहले,
समझ जाया करता था...!!

समय का बंधन भी,
उस अटूट रिश्ते को, 
चाहकर भी,
न तोड़ पाता था...!!

आज मज़हब की,
बेड़ियों ने उसे,
कितना जकड़ लिया...??

कि..........................
मैं भी वही, तू भी वही,
पर...........................
ग़लतफ़हमी की दीवारें,
टूटने का नाम ही नहीं लेती ।।

सीने की तड़प,
मिलने की कशिश,
बिछड़ने का ग़म, 
हर पल सताया करता था...!!

चाहत क्या होती है, 
किसे जाकर बताएँ, 
ये दिल को, 
समझाया करता था..!!

बदल दी,
दो दिलों की राहें,
क़िस्मत के ठेकेदारों ने,
ऐसे फ़ना किया...?? 

कि...................... 
मैं भी वहीं, तू भी वहीं,
पर.....................
ये काल-कोठरी आज भी,
हमें मिलाने का नाम नहीं लेती ।

(कभी-कभी परिस्थिति और विवशताएँ व्यक्ति को इतना कमज़ोर बना देती है कि हम सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि जो हुआ उसमें किसका दोष था.....??)




ब्रह्माणी वीणा हिन्दी साहित्यकार प्रेम- परिवर्तन 
***********
गीत

जीवन-वीणा हर पल झंकृत,
जीवन के बदले से सरगम,,,,,,,
बचपन,,, आया
भोला-भोला मन
बालक खेल रहा ,
ज्यों मस्त पवन /
कितना प्यारा निश्छल सा मन ?
चहका- चहका जीवन-सरगम,,,,,
यौवन, आया जब,
मधुमय सा जीवन 
अधिकारों ने छेड़ा ,
व तोड़ दिया मधुबन /
दो प्रेमी दिल में वियोग तड़फन 
अब टूट गई,,,वीणा - सरगम,,,,
वक़्त कहाँ रुकता है?
यही,मन-वीणा क्रंदन 
जो चाहा नही मिलता है,
ये समय का है,, बंधन /
अब टूट चले रिश्ते नाते,विश्वास,प्रेम का अवमूल्यन
वो निश्छल प्रेमी अब कहाँ ,खो गया प्यारा सा बचपन/
जीवन वीणा हरपल झंकृत,जीवन के बदले सरगम 
वो रूठना फिर मान जाना
सब बचपन के रूप सुहाना
अहंकार के बोझ तले अब,
प्रेम का , अनायास खो जाना
किंतु भूल पाता ना प्रेमी ,बचपन का सच्चा मधुवन /
जीवन वीणा हर पल झंकृत ,जीवन के बदले सरगम //
*****************
ब्रह्माणी वीणा 
संदर्भ 
****
समय के साथ मानव मन बदल गया है बचपन का भोला पन ,चला गया है,,,साथी मे प्रेम विश्वास नहीं रह गया है,,,,




जशोदा कोटनाला बुड़ाकोटी ***क्षितिज ये नही**
चलो आसमां के पार
एक साथ बहुत साथ...

झाँके वहां से
ये हंसी सितारे 
किसकी चुगली 
अक्सर किया करते हैं......?
ये आवारा चाँद
क्यों रोज पोशाकें बदल
चोरी करने
निकल पड़ता है.....?
क्यों ये सदियों से 
विरह में जलता सूरज
सबको अपनी तपिश से
जलाता है.....?

आओ जता दें...बता दें
झुठे हो तुम सब
सुबूत दे दें इन्हें
अपने रेशमी जज़्बातों का .....
आओ बरसा दें....
फुहार इनपर
अपने जुनूनी इश्क़ की.....
दिखा दें अपना
'अज़ल' का रिश्ता .....
जब न आदम था
और न हव्वा .....।

........... परिस्थितियां कुछ भी हो प्रेम अमर है



किरण आर्य ......तय है ..........(प्रोत्साहन हेतु )

वर्षा की प्रथम बेला से 

आयें तुम जीवन में मेरे 
संवर गया जीवन 
जब हाथ थाम तुम 
साँसों एहसासों में हो गए मेरे 
महकने लगी साँसे 
एक हो गए तन मन 
जिया प्रेम में तुम्हारे 
हो समर्पित हर पल मैंने....

समय का चक्र था जालिम 
तुम कसते गए अपना शिकंजा 
मैं टूटती गई 
और एक दिन रेत के मानिंद 
तुम्हारी कसी पकड़ से फिसल गई मैं......

तुमने हमेशा समझा वहीँ 
जो चाहते थे तुम समझना 
अपनें मुताबिक दियें तुमने 
शब्दों को अर्थ 
और अर्थ अनर्थ हो 
जाने कब अपना वजूद खोते चले गए 
तुमने लियें निर्णय 
और बिना मेरा मन टटोलें 
थोप दिया उन्हें मुझपर......

मैं कहाँ थी ? 
शायद मैं नहीं थी 
थे तो केवल तुम 
तुम्हारी सोच तुम्हारे निर्णय 
तुम्हारा शिकंजा 
और मेरा रेत होता वजूद 
एहसास सिमटने लगे 
मूक होने लगे शब्द 
एक गहरी अंधी खाई 
जिसके एक तरफ खड़े थे तुम 
और दूसरी तरफ मैं 
अपनी बैचैनी को थामे.......

हम दोनों ही एक दूजे को 
कर कटघरे में खड़ा 
लगाने लगे थे तोहमतें 
दोनों व्याकुल मन मान बैठे थे 
के दूजा मन 
नहीं समझ रहा बैचैनी 
प्रेम इस मन का 
और इस तरह जाने कब 
रीत गया साथ 
छूटने लगे हाथों से हाथ

शिकायतों का एक दौर चला 
और जाने कब चल दियें हम 
विपरीत दिशा में 
हम हो गये नदी के दो पाट 
सामानांतर चलते हुए भी दूर दूर से....

लेकिन आस एक बाकी कहीं 
कि होगी संकरी नदी 
और दोनों पाट 
फिर आयेंगे करीब 
बिछड़ना नियति सही 
लेकिन मिलना तय है एक दिन 
एकाकार हो सागर में 
विलय होना यहीं तो है प्रेम.........है न 

नोट : दो मन बंधते जब प्रीत में तो होता अक्सर के हक मान दूजे पर अपना पूर्ण, कुछ मन स्पेस नहीं है देना चाहते और वहीँ से दूरी पनपती है....समझ दो दिलो के बीच की रीत जाती है और शिकायतों के ढेर कटघरे में खड़े दो मन चल देते विपरीत दिशा में लेकिन आशावादी हूँ तो उस दूरी में कहीं पास आने की चाह के लोभ से मुक्त नहीं हो पाई............और इसीलिए अंत आशावादी है मेरी रचना का.......





नैनी ग्रोवर मुझे याद है

पानी मे छप-छप करते,

पाँव का तराना, मुझे याद है..

हाथों में हाथ तुम्हारा थामे,
तट पे दौड़ते चले जाना,
दुनियां से अनजान रह के,
सृष्टि का नज़राना, मुझे याद है...

रेतीले घरोंदों के वो दरवाज़े, उसपे नाखूनों से लिखे नाम,
और सीपियों से उसे सजाना,
वो आशियाना, मुझे याद है...

बीते बरस, जाने कहाँ गया,
समय की धारा में बहकर
वो अल्हड़ से बचपन का, 
रेतीला जीवन सुहाना, मुझे याद है...!! 

नैनी ग्रोवर 

टिप्पणी: बचपन की चंद यादें ऐसी होती हैं जो भुलाए नहीं भूलती, उनमे से ही एक ये भी 




किरण श्रीवास्तव "परिवर्तन"
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जीवन के अद्भुत हैं
रंग..
पर सबसे ,प्यारा बचपन,
चाह अलग -ना राह अलग,
भोला सा संसार अलग,
द्वेष भाव ना 
तेरा-मेरा,
निश्छल सा सद्भाव अलग..!!

पर समय - चक्र 
रूक ना पाया
बदला रूप ,
बदली काया..
जीवन का विस्तार बढ़ा,
ख्वाहिशें अंबार चढ़ा,
बदली दिशा और तकदीर
फिर बदली जीवन की तस्वीर...!!!
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टिप्पणी-
जीवन के विभिन्न अवस्थाओं में बचपन सबसे श्रेष्ठ और उत्तम है। प्रेम से परिपूर्ण निश्छल मन..।जैसे-जैसे इंसान परिपक्वता को प्राप्त करता है तमाम असमानतायें आती हैं जिसके परिणाम स्वरूप जीवन की दशा और दिशा दोनों बदल जाती है...।



कुसुम शर्मा कोई लौटा दे वो प्यारे बचपन के दिन 
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कोई लौटा दे वो प्यारे बचपन के दिन 
वो अल्हड़ सी मस्तियाँ 
वो मासूमियत के दिन 
वो स्वछन्द घूमना वो लड़ना झगड़ना 
कभी रूठ जाना कभी मान जाना 
न दुनिया की चिन्ता न कोई डर 
वो बचपन की नादानियाँ वो प्यारे दिन 
कोई लौटा दे वो प्यारे बचपन के दिन 
जवानी जो आई छीना प्यारा बचपन 
उसकी हर बात ने लूटा सारा बचपन 
अब कैरियर की चिन्ता रीति रिवाजों का डर 
छीनी जिसने मासूमियत छीना बचपन का संग 
बन गई ज़िन्दगी बस अब रंगमंच 
कोई लौटा दे वो प्यारे बचपन के दिन !!

टिप्पणी :- बचपन कितना प्यारा होता है जिसमें हमको किसी बात की कोई चिन्ता नही रहती लेकिन जैसे ही जवानी आती है वैसे ही हर चिन्ता व डर हमको घेर लेती है !



Ajai Agarwal मिलना बिछुड़ना रीत जगत की -प्रोत्साहन हेतु -
ऊपर वाले; तेरी ,छतरी के नीचे ,
क्यूँ बचपन के ;

मासूम -प्यार के बन्धन टूटे ?
जन्मों से जन्मों तक कसमे
बचपन पर ये सब क्या जाने
हाथ पकड़ हम इक दूजे का 
दो जन एक प्राण ही तो थे 
प्रीत प्यार का बंधन क्या है 
हम तो बस खेला करते थे 
एक दूजे के सखा बने 
इक दूजे की आदत-साधन थे। 
बड़े हुए तो क्यूँ हम बिछड़े ?
क्यों मासूम प्यार के बंधन टूटे ?
सूखी आँखें सागर महसूसें
अधरों पे अहसास प्रणय का
जीवन अमावसों की गठरी 
सच सपने मन की बाहों में
प्राण मुखर, हाँ ना की दुविधा
कर्म भाग्य की परिधि सीमित
बरखा बून्दें लड़ियां साँसें
टूट -टूट धरा पे बिखरें
सागर की लहरों सी मचलें।
वो लज्जा वो संकोच पलों का
मिलन !या - मिलने की चाहत ?
कभी तीर पे वो होता
या ; खड़ी तीरे ''मैं'' नापूं दूरी
गूँगे पल , प्राण पियासा 
आतुर चाह समर्पण चाहे
मृग छौनों सा चंचल मन
बादल सजल भावों के लेकर
रिमझिम -रिमझिम बरस- बरस के
तन- मन- प्राण भिगोता क्यूँ है ?
मन अंगारों की फुलझड़ियों से
एकाकीपन क्यूँ अभिसारित ?
प्राणों का ही हवन प्राण में
मौन समर्पण, कम्पित तन मन
साँसों में साँसों का गोपन
फिर भी --
ऊपर वाले तेरी छतरी के नीचे --
प्रणय -प्यार के बन्धन टूटे --क्यूँ टूटे ? ----
====================
चित्र को देख कुछ लिखने की कोशिश 
मैं बचपन से ही अंतर्मुखी रही सो 
कोई भी ऐसा मित्र नहीं रहा जिसके जाने का इतना दुःख हुआ हो --॥ आभा।।





गोपेश दशोरा शीर्षकः प्यार की कसम
बचपन का वो साथ हमारा,
क्यों तुमने बिसराया है,

जीवन सफर में सिवा हमारे,
क्या दूजा कोई आया है?
बचपन के दिन वो याद करो,
जब दूर खेलने जाते थे,
मैं रेत के महल बनाती थी,
तुम तोड़ उन्हें इतराते थे।
झूठ मूठ के रूठने पर,
व्याकुल से तुम हो जाते थे,
और मुझे मनाने की खातिर,
तुम खुद ही महल बनाते थे।
वो महल तो महज खिलौनें थे,
वो टूट गए कोई बात नहीं,
पर रिश्ते को यूं तोड़ रहे,
इसका काई अवसाद नहीं?
जीवन भर संग चलेंगे हम,
यह वादा तुमने बोला था।
संग जीना है संग मरना है,
यह राज दिलों का खोला था।
माना अब बचपन नहीं रहा,
पर प्रेम अभी भी है मन में।
कैसे तुमको ना याद करू,
जब तक है जीवन इस तन में।
एक बार मैं फिर से रूठी हूँं,
आकर के मना लो फिर मुझको।
ऐसा ना हो वक़्त गूज़र जाए,
और मिल ना पाऊँ फिर तुमको।
है प्यार की कसम तुम्हें,
न जाओं ऐसे छोड़ कर।
हम जीते जी मर जाएगें,
जो जाओगें मुंह मोड़कर।
-गोपेश दशोरा
टिप्पणीः चाहते है कि बचपन का साथी जीवन भर साथ रहे। पर एक दिन वो मुंह मोड कर चल देता है। उस स्थिति में जीवन ना चाहते हुए भी जीना पड़ता है। और उसे रोकने की भरसक कोशिश भी की जाती है।



Madan Mohan Thapliyal (प्रोत्साहन हेतु)
वो, समाज और मैं


उसकी कृपादृष्टि
जन्म धरा पर
सुअंग, सुकुमार 
सुकेत, सुबोध
सा बचपन
चंचल, चपल
सुरदान , समीर
सा बचपन
अभय, अनघ
चितचोर, नयशील
सा बचपन
उसका था प्रतिरूप
परिभाषित करने खुद को
भेजा उसने बचपन
ठुमक -2, चलना
हंसना, रोना
औ रूठना
रजकण में लिपटा
सा बचपन
भानु की तपिश सा
गंगा जल सा निर्मल
ऐसा मधुमय
सा बचपन
खींचा हाथ 
उसने जब
बिखर गए
सारे सपने
उम्र बढ़ी
काया बदली
संस्कारित करने लगे सब अपने
ऊंच-नीच, छोटा-बड़ा,
ईर्ष्या, जलन
सिखा गए सब
जो थे अपने
कर दी दीवार
खड़ी माया की
संस्कार कह
सींचे सपने
राह बदली
जीवन बदला
नफरत में ढकेल गए सारे अपने
मैं अब एक 
पुतला हूं माटी का
रोज ढलता और बिखरता हूं
भाग्य है प्रवीण
समझ यह चलता हूं !!!

नोट : हमारे अपनों की महत्वकांक्षा हमारे जीवन में कुहासे की चादर सी छा जाती है और फिर हम समाज का हिस्सा बनकर वही करते हैं जो समाज को अच्छा लगता है।




अलका गुप्ता __बदलते प्रतिरूप __
***************** 


चले थे..साथ हम...
नन्हें नन्हें से क़दम !
साथ ही खुशियाँ भी !
निच्छ्ल था तन-मन !!
वह निराला था बचपन !

समय में ऐसे आँजे !
चूर हुए सपने साँझे !

बड़ा हुआ कद साया 
अहं आकर टकरया !
अंतर्मन को उलझाया !
राहें विषम..समझाया !!

छतरी अपनी अलग हुई !
भिगो भीतर मलिन हुई !
कीचड़ सी बरसात हुई !
सुथरी तस्वीर खराब हुई !

उबर न पाए प्रतिवाद हुए !
घात प्रतिघात संवाद हुए !!
जीवन घाव अलगाव हुए !
बद ये भव फ़िर बदनाम हुए!!

भूल निष्पाप वह भाव सारे !
छल प्रपंच सरि-सार बहे !
जीवंत कटु ये छल-छार हुए !
गिर गर्त विकट अंधियार हुए !!

____________अलका गुप्ता___

नोट _बचपन के मासूम भाव समय के अंतराल में किस प्रकार बदल जाते हैं ..और क्या हश्र हो जाता हमारा ...बस यही प्रस्तुत चित्र में मुझे दिखा जिसे उकेरने का मेरा प्रयास रहा है !



मीनाक्षी कपूर मीनू मिलन ... क्षितिज सा...
*******************
छोटे छोटे 

नन्हे कदम
मिल के चले 
बन दोस्त.....
वो घुल मिल गए 
मासूमियत की 
पहचान बन गये 
साथ पढ़ते खेलते 
न जाने कब 
एक दूजे की 
जान बन गए 
अचानक...
वक्त बदला
किस्मत भी
बदल गए 
प्रेम तराने
दिल बदले 
हाथ छूटे 
टूटे रिश्ते 
नए पुराने
बह गया सब 
आंसुओं की धार में
छुप गया सब 
बरखा की बौछार से
मनस्वी....
मिलते कदम 
अब यूँ लगा कि
क्षितिज हो गए 
नदी के दो पाट
आज हमारे
कदम बन गए....
टिप्पणी... बचपन मासूम होता है निश्छल प्रेम होता है मगर उम्र के बढ़ते हर पड़ाव में दोस्ती का इम्तिहान होता है और उसी कशमकश में कई बार दोस्ती प्रेम मिलन का मात्र प्रतिबिम्ब बन कर रह जाता है क्षितिज की तरह जहां मिलन दिखता तो है मगर होता नही ... मीनाक्षी कपूर मीनू 
* मनस्वी*



प्रभा मित्तल ~~~~~
~~लौट के फिर ना आए~~
~~~~~~~~~~~~~

नहीं किसी की याद मुझे 
बस तुम ही याद आए
बीती बातें खोेए सपने
नयनों में तिर आए।

देखो काग़ज़ की नाव 
लहरों पर इतराती जाए
खेल खेल में बने जहाज 
तो हवा उड़ा ले जाए।

छतरी लेकर बारिश में
छप छप करते चलते थे
सगरे भीगे तन मन में
कितने अरमां मचलते थे।

हाथों में हाथ संभाले​,
बचपन पीछे छोड़ आए
मीलों रस्ता तय कर भी,
पिछला ना बिसरा पाए।

साथ हमारा छूट गया
देखा सपना टूट गया
ओझल होकर आँखों से 
वक़्त अपना रूठ गया।

बचपन के साथी तुम थे
खुशियों की थाती तुम थे
बिछुड़े जीवन से ऐसे
लौट के फिर ना आए।

कितनी ही बातें करनी थीं
यौं जाने की क्या जल्दी थी
ऐसे भी कोई जाता है क्या
तुम तो जाकर फिर ना आए,
जो चले गए जगती से
क्यों लौट के फिर ना आए।

~ प्रभा मित्तल.

( मेरे बचपन की यादों में कोई संगी साथी नहीं रहा,जिसे मैं लिख पाती। इसलिए इन चित्रों में भाई के अलावा किसी को नहीं बाँध सकी, उस वक़्त की वही सुनहरी यादें रहीं,वो भी नियति लील गई।चित्र पर खरी नहीं हूँ जानती हूँ फिर भी आज बस इतना ही कह पाई)


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